सोमवार की रात ही हम लोग तीन दिन के रतनगढ़ से हरिश्चंद्र-गढ़ ट्रेक से वापस आये थे और सब थके हुए थे इसलिए सबका इस सप्ताहांत आराम करने का मन था | इस ट्रेक के वृत्तान्त को मैं बाद में लिखूंगा क्योंकि ये लम्बा हो जा रहा है |
बाहिरी गुफाएँ :
रायगड जिले में कर्जत के पूर्व में स्थित है ढाक पहाडी| ढाक पहाडी पर ढाक का किला भी है लेकिन यह शायद बहुत मुश्किल ट्रेक है और इसके बारे में कम ही जानकारी मिल पाती है | ढाक किले के नीचे इसी पहाडी पर बाहिरी गुफाएँ हैं | इन गुफाओं तक पहुंचना थोडा कठिन है | यहाँ भैरोबा (भैरवनाथ ) देवता का मंदिर होने कि वजह से गाँव के लोगों का आना जाना भी रहता है | एक दुर्गम चट्टान के बीच में यह गुफा जिसमें कि एक बार में २०० के करीब लोग रुक सकते हैं, अक्सर लोगों को आकर्षित करती है | सबसे आश्चर्यजनक बात है इस गुफा के भीतर पानी का स्रोत जो कि पूरे साल भरा रहता है | हांलांकि यह ट्रेक थोडा साहसिक भी है क्योंकि गुफा तक पहुँचने के लिए २०-२५ फीट आपको रस्सियों के सहारे चढ़ना पड़ता है जिसमें गाँव के लोगों ने एक पेड़ का तना थोड़े खांचे बना कर बाँध दिया है |इससे पहले थोडा हिस्सा चट्टानों में ही बने खांचों पर चढ़ना है |
योजना :
मयंक का भी अचानक घर जाने का प्लान बन गया तो सप्ताहांत पर हम सब ने आराम करने का मूड बना लिया था | शुक्रवार को दिन में मयंक बोला कि वो अब घर नहीं जा रहा और हम कहीं चल सकते हैं | पिछले ट्रेक कि थकान अभी मुझ पे हावी थी इसलिए मेरा आराम करने का मन था| सौरभ भी थका हुआ था और ढ़ाक जैसे मुश्किल ट्रेक पर जाने के मूड में नहीं था| मयंक बोला कि वो अकेला ही ढाक बाहिरी ट्रेक करने की सोच रहा है | ट्रेक का प्लान बने और मेरा मूड न हो ऐसा नहीं हो सकता | शाम तक मेरा भी जाने का मन बन चुका था |
रात में मैं बान्द्रा में मयंक के घर पंहुचा और खाना खाने के बाद एक बार फिर मुझे नींद आ गयी | मयंक ने ११ बजे उठाया परन्तु मैं थकान की वजह से नींद की बेहोशी में था | मैं सोच नहीं पा रहा था कि जाऊँ या नहीं | इस पर मयंक अकेला तैयार हो गया और मैं सो गया | ५ मिनट बाद संजीव ने मुझे उठाया कि मयंक अकेला जा रहा है | अब मेरी नींद खुली और आखिरकार में जीवन के अब तक के सबसे रोमांचक ट्रेक पर जाने के लिए तैयार हो गया |
मुंबई से सान्डशी गाँव:
११:३५ पर हमने मुंबई सी० एस० टी० के लिए टैक्सी पकड़ी और करीब १२:१० पर हम पहुँच गए | यहाँ से १२:३८ की कर्जत जाने वाली आखिरी लोकल पकड़नी थी | स्टेशन के बाहर चाय पीने के बाद हमने टिकेट लिया और ट्रेन की तरफ
सुबह ३:२० पर हम कर्जत स्टेशन पर थे | किस्मत अच्छी थी और यहाँ चाय भी मिल गई | चाय पीने के बाद हमने सोचा की यहीं पर थोडी देर सो लिया जाये और ५ बजे बस स्टेशन की तरफ चलेंगे| चूँकि हम दूसरी बार इस ट्रेक पर जा रहे थे तो रास्ते से वाकिफ थे ही | हमें सान्डशी गाँव के लिए पहली बस पकड़नी थी जो ५:५० पर कर्जत से जाती है | रेलवे स्टेशन पर मच्छर बहुत थे और हम सो नहीं पाए | करीब ४ बजे हम दोनों ने बस स्टेशन जाने का फैसला लिया | बस स्टेशन थोडा ही दूर है | यहाँ आज कोई नहीं था क्योंकि इस मौसम में धूप की वजह से कम लोग ही ट्रेक पर जाते हैं | यहाँ मच्छरों से छुटकारा मिल गया और हमने १ घंटे की नींद पूरी कर ली | सुबह बस पकड़ कर हम करीबन ६:३० पर सान्डशी गाँव पहुँच गए |
कर्जत बस स्टेशन : वेला पत्रक (टाइम टेबल )
ट्रेक का प्रारंभ :
हल्का हल्का उजाला हो चुका था और हमको दिशा का पता था इसलिए सीधे बाहिरी के रास्ते पर निकल पड़े |
करीब आधा घंटा यहाँ रुकने के बाद हम आगे बढे | अब हमें सही रास्ता खोजना था क्योंकि नदी पर चलते चलते एक
जंगल में डराया पालतू भैंसों ने :
यहाँ पर चढ़ने के बाद एक छोटा सा मैदान आ जाता है | यहाँ रुके और दोनों लोग चट्टानों पर लेट गए | अभी गर्मी ज्यादा नहीं थी और हवाएं तेज़ थी | थकान धीरे धीरे कम हो रही थी | अचानक मैं उठ के बैठा तो सामने करीबन ७-८ भैंसे एक कतार में खड़ी थी | इसमें कुछ ख़ास नहीं था वो पास के गाँव से घास चरने आई हुई थी | परन्तु जिस बात से हमको डर लगा वो ये की ये सब लाइन में खड़ी हो कर हमको घूर रही थी मानो हम किसी दूसरी दुनिया के हों | ऐसा लग रह था जैसे एक इशारे पर ये सब हमारी तरफ दौड़ पड़ेंगी | कौन जाने क्या होने वाला है | मैं और मयंक चुपचाप उठे और जल्दी से उपर चढ़ गए | थोडा आगे जा कर रुके और फिर कुछ देर तक ये सोच कर हंसते रहे कि जंगल में हम पालतू भैंसों को देख कर भागे |
नए रास्ते की खोज और घना जंगल:
यहाँ से थोडी देर जंगल में होते हुए उपर चढ़ना था | जंगल होने की वजह से धूप नहीं लग रही थी इसलिए कुछ देर में आराम से चढाई पार कर ली | करीबन १० बजे हम लोग ढाक पहाड़ के नीचे थे | यहाँ थोडी देर रूककर आराम किया |
फिर एक रास्ता और मिला जो थोडी थोडा दूर चलने के बाद नीचे की तरफ जा रहा था | लेकिन गुफाएं तो उपर थी और दूसरा कोई रास्ता भी नहीं दिख रहा था | थोडा वापस जा कर दूसरा रास्ता खोजने लगे | लेकिन झाडियों की वजह से कुछ समझ नहीं आ रहा था और ऐसे हम जंगल के उस पार नहीं जा सकते थे | वापस पुराने रास्ते पर आने के अलावा कोई चारा नहीं था | लेकिन वहां तक जाने के रास्ते भी याद नहीं थे क्योंकि हम झाडियों में घुस घुस कर यहाँ पहुचे थे | थोडी देर भटकने के बाद आखिर हम एक जगह पहुचे जहाँ हमने दो तीन पत्थर रख कर निशान लगा दिया था ताकि भटकने पर याद रहे | यहाँ से फिर वापस उस जगह चल पड़े जहाँ पर मुख्य रास्ता था | यहाँ से अब इस रास्ते पर
थोडी देर में कुछ लोगों की आवाज़ सुनाई दी | समझ नहीं आ रहा था कि ये आवाज़ उपर से आ रही थी या नीचे से कोई आ रहा था | ५-१० मिनट बाद ४ लोग आ गए | ये ट्रेकर नीचे से आ रहे थे और अब साथ में रास्ता खोजने लगे | थोडी देर में रास्ता मिल गया और हम उपर चड़ने लगे |
जंगल की आखिरी चढाई और दुर्गम नाली :
यहाँ से सीधा रास्ता पहाडी के पीछे की तरफ ले जाता है लेकिन ये बहुत चढाई वाला रास्ता है | ये लोग कुछ देर के लिए
इस ट्रेक का सबसे बड़ा रोमांच इसके आगे का रास्ता है | यहाँ से एक सीधी चट्टान में कुछ देर तिरछे चल कर फिर सीधे उपर चड़ना है | बाहिरी गुफाएं पहाडी के बीच में हैं | यहाँ पर थोडा चल कर एक छोटी सी गुफा है जो बाहिरी गुफा के दूसरे किनारे के ठीक नीचे है | यहाँ पर बचा हुआ पानी पिया और आगे के दुर्गम रास्ते के लिए खुद को तैयार कर लिया | अब तिरछे चल कर गुफा के दूसरे किनारे के ठीक नीचे जाना था जहाँ से फिर सीधा उपर चढ़ना था |
गुफा तक की आखिर चढाई : दुर्गम चट्टान पर चढ़ने का भयावह रोमांच :
ये रास्ता थोडा मुश्किल था पर ज्यादा नहीं | अगर आपको ऊंचाई से डर लगता है तो नीचे की सीधी खाई देख कर आप
यहाँ पर चट्टान को काट कर पैर रखने के लिए खांचे बने हुए हैं | इसपर चढ़ना थोडा आसान था लेकिन नीचे नहीं देखना था | कुछ जगह चट्टान पर हाथों की पकड़ अच्छी नहीं बन रही थी| खैर धीरे धीरे हम उस जगह पहुँच गए | यहाँ पर करीब ५-६ लोगों के खड़े होने की जगह थी और यहाँ से उपर का रास्ता भी दिखने लगा था | ये लोग उपर सामान चढाने के बाद खुद चढ़ने लगे | अब हमको दिख रहा था की कैसे जाना है | थोडी दूर चट्टान में फिर तिरछे चल कर यहाँ से रस्सियों और एक पेड़ के तने (जिसमे खांचे बने हैं ) के सहारे करीब १५-२० फीट चढ़ना था | तब तक ठाणे के ट्रेकर जो हमको नीचे मिले थे वो भी इस जगह पहुँच गए | हम ६ लोग यहाँ पर रुके और उपर वालों के गुफा तक पहुँचने का इंतज़ार करने लगे| इन लोगों में अजीत साटम जी अनुभवी ट्रेकर थे | यहाँ से एक एक कर के ही उपर चढा जा सकता था क्योंकि चट्टान में पैर रखने की जगह नहीं थी और लकड़ी ज्यादा भार नहीं ले सकती थी | पहले वो लोग चढ़े और उनको देख कर एक एक कर हम सब चढ़ने लगे | आपको रस्सी को पकड़ कर अपने पैर लकड़ी में खांचों में टिकाने हैं और हाथों पर भार दे कर उपर चढ़ना है | मयंक सबसे पीछे था और मुझे देख देख कर चढ़ रहा था | उपर से वो बता भी रहे थे की अब कहाँ पैर रखना है |
ढ़ाक बाहिरी गुफा में : अनूठा सुकून सफलता का :
थोडी देर में हम सब गुफा में पहुँच गए | यहाँ आते ही मयंक ने बताया की एक जगह उसका पूरा भार एक खांचे पर आ
पहले मदिर के दर्शन किये और पानी पिया | इस गुफा से लगी हुई दूसरी गुफा है जो बहुत बड़ी है | यहाँ भी कुछ बर्तन पड़े हुए थे लेकिन यहाँ बहुत गन्दगी की हुई थी | लोगों ने खाने पीने का सामान छोड़ा हुआ था | इसके किनारे पे बैठ कर सामने के सुन्दर दृश्य आपके सामने होते हैं | लोगों ने बताया की यहाँ से सूर्यास्त का बहुत सुन्दर दृश्य दिखता है इसलिए लोग यहाँ रात में रुकते हैं |
गुफा से वापसी :
करीबन १ घंटा यहाँ रुकने के बाद अब वापस जाना था | हमने भी अजीत लोगों के साथ ही उतरने की सोची | कुछ लोग पहले उतरे और वो नीचे से बता रहे थे कि कैसे उतरना है | इस समय मयंक थोडा घबराया हुआ था क्योंकि नीचे पैर रखने की जगह नहीं दिख रही थी | पैर से टटोल के ही जगह खोजनी थी | सबसे मुश्किल ये थी की अब चट्टान धूप में तप चुकी थी और उसको पकड़ के खडा रहना मुश्किल हो गया था | बस जल्दी जल्दी हाथ उठा कर आगे बढ़ना था | धीरे धीरे उतरते हुए हम लोग इस चट्टान से उतर गए | अब तिरछा वापस जा कर उस नाली पर चढ़ना था | करीबन ३:३० पर हम नाली के उपर चढ़ गए | यहाँ पर कुछ देर आराम किया और अब यहाँ से नीचे उतरना था जो ज्यादा मुश्किल नहीं था | अजीत और ठाणे के ट्रेकेर्स भी आ गए थे लेकिन इन लोगों का विचार कोंडेश्वर मंदिर के दर्शन कर लोनावाला की तरफ से नीचे उतरने का था | हम लोग थक चुके थे और वापस सान्डशी के लिए निकल पड़े |
फिर भटके रास्ता :
अरे ये क्या | उपर चढ़ते हुए जहाँ रास्ता भटके थे एक बार फिर वहां रास्ता भटक गए | ये डरने वाली बात थी क्योंकि अब शाम होने वाली थी | अब फिर हम झाडियों में भटकने लगे | खैर १५ मिनट खोजने के बाद फिर उस जगह पहुंचे जहाँ हमने पत्थर रख कर निशान लगाया था | अरे वाह ! मयंक का लगाया ये निशान २ बार हमको सही रास्ते पर ले आया | यहाँ से जल्दी जल्दी उतरने लगे | हमारा इरादा सूर्यास्त से पहले गाँव तक पहुचने का था | अब सीधे रास्ता था और हम ५:४५ पर गाँव में पहुँच गए | यहाँ पर चाय पी और पता चला की ६ बजे कर्जत के लिए बस है | यह बस ६:२० पर आई और कर्जत से ७:४० की लोकल ट्रेन पकड़ कर १० बजे हम बान्द्रा पहुंच गए |
थकान बहुत ज्यादा हो गई थी परन्तु इस ट्रेक को पूरा करने की एक अजीब सी ख़ुशी और सुकून था |
kafi ramanchak raha tera yeh track...ek dum seedhi aur lambhi chattane...wakai main himmat ka kaam tha..track pura karne ke liye congrats!!!!!
जवाब देंहटाएंmast mast .............. sahi sahi....
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