सोमवार, 16 नवंबर 2009

तीन दिवसीय मेगा ट्रेक -- ( रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ ) : भाग दो |

दूसरा दिन :

रतनगढ़ की अविस्मरणीय सुबह :


रतनगढ़ की इस गुफा में रात बिताने का अनुभव सबके लिए बड़ा ही सुखद और नया था | आधी रात तक तो आग ने साथ दिया मगर फिर वो भी बुझ गई | अब ठंडी हवाओं का दौर शुरू हो गया था साथ ही ठण्ड भी पड़ने लगी थी | खैर रात अच्छे से कट गई और सुबह ५:३० के करीब मैं और सौरभ उठ गए | मौसम हल्का सा ठंडा था और सुबह के दृश्य बेहद ही खूबसूरत | सच कहूँ तो इस सुबह को मैं कभी नहीं भूल सकता | सामने पहाड़ियां , विशालकाय झील और उसके आस पास बसे हुए गाँव : सचमुच प्रकृति की इस सुन्दरता को अवर्णनीय ही कहा जाये तो अच्छा है | अभी सूर्योदय नहीं हुआ था और क्षितिज पर बिखरे सिन्दूरी रंग अनूठी छठा बिखेर रहे थे | इन दृश्यों के आनंद के साथ अब हमको जल्दी निकलना भी था क्योंकि बिना किसी गाइड के ही हरिश्चन्द्रगढ़ जाना था जो यहाँ से कम से कम १२ घंटे का ट्रेक था |

इसका मतलब यह था कि यदि हम ७ बजे निकलते हैं तो शाम को ७ बजे के पहले पहुँचने की कोई भी सम्भावना नहीं है | और इसके उपर हम शहर के लोग जिन्हें चलने फिरने की आदत बिलकुल भी नहीं रही | सौरभ रतनगढ़ के उपर पानी लेने चला गया और मैंने आग जला कर चाय बनाने का इंतज़ाम कर दिया | अब तक अभिषेक भी उठ गया था और चाय बनाने के बाद मयंक को भी उठा दिया |
इस सुबह ने सबका मन ऐसा मोह लिया था की चाय के गिलास पकड़ कर सब लोग गुफा के बाहर ऐसे बैठ गए जैसे अब आगे किसी को नहीं जाना | थोड़ी देर फोटोग्राफी करने के बाद अब बिस्तर समेट लिया गया | सारा सामान बांधने के बाद गुफा की सफाई कर सब तैयार थे हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए |

हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए प्रस्थान :
अभी अभिषेक का इन सीढ़ियों से उतरने का भय बरक़रार था तो उसे हिम्मत बंधाते बंधाते धीरे धीरे सकुशल सीढ़ियों के नीचे आ गए | ८ बज चुका था और अब जल्दी जल्दी मंजिल की तरफ बढ़ना था | थोडा नीचे उतरने के बाद वो जगह मिल गई जहाँ से हरिश्चन्द्रगढ़ का रास्ता पकड़ना था | यहाँ से दायीं तरफ चलने के बाद थोड़ी देर में एक पानी का तालाब मिल गया | यहाँ एकदम साफ़ पानी था तो सबने हाथ मुँह धो लिए और बोतलें भर ली गयी | यहाँ से हमें तिरछे तिरछे ही जा कर एक पहाड़ से दूसरे में जाना था और उसके आगे हमारी अगली मंजिल थी कटारबाई खिंड (खिंड : पास / दर्रा )| कटारबाई खिंड को पार कर हमें पहाड़ों की इस श्रंखला के उस पार पहुँच जाना था जहाँ से नीचे उतरकर कुमशेट गाँव मिल जाता है | थोड़ी दूर तक रास्ता साफ़ दिख रहा था और हम बड़ी आसानी से चलते रहे | इसके बाद जंगल शुरू होने लगा और साथ ही पगडंडियों का मकड़जाल | सब लोगों ने जो बोला था वही हो रहा था | वास्तव में ये जंगल घने थे और यहाँ बहुत से रास्ते थे | सही रास्ते का अनुमान लगाना बहुत कठिन होने लगा था | बस हमें कटारबाई खिंड की दिशा का हल्का सा अंदाज़ा था क्योंकि लोग जो बता रहे थे वो हम मराठी के अल्पज्ञान की वजह से कुछ कुछ ही समझ पा रहे थे |

सुबह सुबह जंगल में सुखद ट्रेक :
सौरभ के कहने पर हम एक रास्ते पर कुछ देर चलते रहे | उसका अंदाज़ा था कि अगर ये रास्ता आगे जा कर दायीं ओर मुड़ा तो इस पर चलेंगे अन्यथा वापस आ कर दूसरा पकड़ लेंगे | ये बात सही लग रही थी इसलिए सब चल पड़े | इस पर चलते चलते करीब १५ मिनट हो गए परन्तु अब कुछ समझ नहीं आ रहा था | यहाँ से वापस आये और दूसरे रास्ते पर चल पड़े | ये रास्ता उपर की तरफ जा रहा था | मुझे लगा था कि शायद इसके उपर ही कटारबाई खिंड हो | करीब आधा घंटा चलने के बाद हम पहाडी के उपर थे | यहाँ से एक रास्ता नीचे उतर रहा था और एक और उपर की तरफ जा रहा था | चूँकि हम जंगल के बीच में थे इसलिए कुछ दिख भी नहीं रहा था जिससे दिशा का अनुमान लगे | एक बार को लगता कि शायद ये ही कटारबाई खिंड हो परन्तु अभी तो हम १ घंटा ही चले थे और वो इतना नज़दीक भी नहीं | पता नहीं क्या सोच कर सबने नीचे की तरफ जाने का निर्णय ले लिया | थोड़ी दूर जा कर जंगल कम हुआ और एक मैदान सा आया | यहाँ से हम चारों तरफ देख सकते थे सिवाय नीचे कि तरफ | नीचे कि तरफ जंगल थे तो कुछ नहीं दिख रहा था | इसी सीधे रास्ते पर करीबन १ घंटा नीचे कि तरफ चलने के बाद हमें फिर से झील दिखाई देने लगी | चूँकि इस झील का विस्तार बहुत ज्यादा था और कई पहाड़ियों कि तलहटी तक गई थी तो ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ | थोड़ी देर में नीचे सड़क भी दिखने लगी और गाँव भी | हम सब के मन में एक बार को तो ख़ुशी की लहर दौड़ गई | सबको लग रहा था कि सम्भावना है कि हमने कटारबाई खिंड पार कर लिया और ये ही कुमशेट गाँव होगा |

ट्रेक की सबसे बड़ी भूल : भटके रास्ता
अब जोश के साथ तेज़ी से नीचे की तरफ बढे | करीब १०:३० पर हम सड़क पर आ गए थे | थकान ज्यादा नहीं थी क्योंकि पहाडी से उतरे ही थे | यहाँ से गाँव की दिशा में आगे बढे और लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया कि हम बिलकुल गलत आ गए हैं | दरअसल जो पहाडी के बिलकुल उपर रास्ता मिला था वही कटारबाई खिंड जाता था | यहाँ लोगों ने जब कटारबाई खिंड दिखाया तो सबके होश ही उड़ गए | फिर से उपर जाना था और दूसरे पहाड़ के उपर से उस पार | एक लड़के ने बताया की यहाँ से हमको सीधे पाचनै गाँव के लिए गाड़ी मिल जाएगी | एक बार दिमाग में ख्याल आया कि इतना उपर जाने से अच्छा है गाड़ी से चले जाएँ | परन्तु मयंक के समझाने पर याद आया कि हम तो ट्रेक पे निकले थे | अब सब भूल के कटारबाई खिंड कि दिशा में चढ़ाई शुरू कर दी | थोडा उपर जा कर एक बुजुर्ग से आदमी खेत पे काम करते दिखे | उनसे रास्ते के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि हम फिर से गलत जा रहे हैं और वो थोडा उपर तक चल कर रास्ता दिखा देंगे | मुझे कभी कभी स्वयं पर आश्चर्य भी होता है कि मैं गाँव में काम चलने लायक मराठी बोलने-समझने लगा हूँ | शायद ये बहुत अच्छी बात है कि मैं इतनी जल्दी सीख ले रहा हूँ |

चट्टान का दुर्गम रास्ता : अभिषेक का भय
थोड़ी देर मामा (मराठी में किसी अनजान व्यक्ति के लिए आदरपूर्ण संबोधन ) के साथ चलने पर अचानक सबके कदम रुक गए | नीचे से बरसाती नाला पूरे प्रवाह में बह रहा था और इसके उपर चट्टान में (जहाँ कि मुश्किल से पैर रखने कि जगह थी ) करीबन २५-३० फीट तिरछे जाना था | मामा ने बताया कि या तो यहाँ से जाओ या फिर वापस जहाँ से आये थे पूरा घूम कर जाना होगा | मैं इस रास्ते के लिए तैयार था | सौरभ और मयंक पहले थोडा सहमे परन्तु दूसरे रास्ते पर जाने की बात सोच कर वो तैयार हो गए | परन्तु अभिषेक का चेहरा देखने लायक था | उसने साफ़ मना कर दिया कि ये उसके बस की बात नहीं है | थोड़ी देर समझाने पर वो थोडा थोडा तैयार हुआ | क्योंकि हम में से कोई भी वापस उस लम्बे रास्ते पर नहीं जाना चाहता था |
मामा के पीछे पीछे पहले मैं गया | एक बार को मेरे कदम भी डगमगा गए परन्तु फिर मैं पार हो गया | इसके बाद सौरभ आया और जोश में वो उपर चढ़ गया | दरअसल तिरछा जाना था पर सौरभ कि ये खास बात है कि एक बार जोश आ जाये तो वो कहीं भी चल पड़ता है | खैर वो धीरे से उतर के सही रास्ते पर आया और पार कर गया | धन्यवाद मामा का जिन्होंने अभिषेक को जैसे तैसे वो पार करा दिया | उसने बताया कि उसे ऊंचाई से डर लगता है और उसके चिल्लाने की आवाजों से मामा भी आश्चर्य चकित थे | उसके पार होने पर मामा ने भी सुकून की सांस ली और थोड़ी देर हँसते रहे | इस समय अभिषेक की ख़ुशी का अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता | वह इस रस्ते को पार करने की ख़ुशी में चिल्ला रहा था |
अब सब लोग आ चुके थे | यहाँ से मामा ने कटारबाई खिंड दिखाया | मामा ने कहा की अगर हम उनको २०० रुपये दें तो वो अपने खेत का काम छोड़ कर हमे उपर तक पहुंचा सकते हैं | इसमें सोचना क्या था इतना भटक चुके थे सो हम तुरंत तैयार हो गए |

मामा की सहृदयता : पहुंचे कटारबाई खिंड
अब रास्ता भटकने का भय नहीं था इसलिए जल्दी जल्दी चढ़ने लगे | बीच बीच में छोटे छोटे विराम ले कर चढ़ रहे थे | थोड़ी देर बाद चढ़ाई मुश्किल हो गई परन्तु धीरे धीरे हम करीब १२:३० पर कटारबाई खिंड के उपर पहुँच गए | यहाँ मामा ने बताया की अगर थक जाओ तो कुमशेट गाँव में ही रुक जाना | मामा का नाम काडू था और उन्होंने बताया की उस गाँव में उनके कोई भाई विट्ठल रहते हैं | यह काडू मामा की सहृदयता ही थी की उन्होंने हमें वहां जा कर खाने और रहने का ठिकाना बता दिया | इतनी बार गाँव में जा कर मैं यह कह सकता हूँ कि भाषा और क्षेत्र के नाम पर विभाजन और कटुता कुछ एक स्वार्थी और विघटनकारी तत्व ही पैदा करते हैं | वास्तव में गाँव के सज्जन लोगों की इंसानियत और आत्मीयता इस सब से बहुत परे है | इंसान को इंसान से जोडती है उसकी इंसानियत | मराठी न जानते हुए भी हम लोगों को जो स्नेह मिलता है वो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है |

कटारबाई खिंड से कुमशेट गाँव की तरफ :
अब मामा से विदा ली और उनके दिखाए हुए गाँव की तरफ सीधे रास्ते की तरफ चल दिए | देखने से गाँव बहुत दूर लग रहा था परन्तु मामा के अनुसार २ घंटे में पहुँच जायेंगे | अब तक किसी ने कुछ खाया भी नहीं था इसलिए थकान हावी होने लगी थी | आधे घंटे चले होंगे कि सौरभ को याद आया कि वो कुछ मेवे ले कर आया है | इन मेवों ने हमारी यात्रा में फिर क्या नए गुल खिलाये ये आगे पता चलेगा | दरअसल वो अभी दीवाली पे घर से मेवे रख के लाया था और तुरंत ट्रेक का प्लान बन गया तो उसने सारे रख लिए | एक जगह रुके और थोड़े मेवे खाए | बाकी लोग बादाम कम खा रहे थे लेकिन मेरी भूख का सब्र टूट रहा था | मैंने धीरे धीरे कम से कम ५० बादाम तो खा ही लिए होंगे | हम धीरे धीरे उतर रहे थे क्योंकि रास्ते में मिटटी कि वजह से फिसलने का खतरा था | बस अब सबको किसी पानी के नदी नाले कि तलाश थी जहाँ रुक कर मैगी बनायीं जाये और कुछ पेट भरे | हमारे पास पानी भी आखिर बोतल बचा था | करीब २ बजे एक छोटा सा बरसाती नाला / नदी मिल गई और यहाँ पर छोटा सा झरना जैसा भी था |

दिन का भोजन और बादाम का कमाल :
यहाँ पर थोडा विराम लिया | अब तक सौरभ नहाने कि जगह खोज चुका था | एक एक कर के सब नहाने चले गए और अब मेरा सर घूमने लगा था | मयंक ने मुझे पहले ही टोका था कि इन बादामों की गर्मी सर में लगती है | मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या हालत थी | मैं चादर बिछा के वहीँ जंगल में सो गया | मयंक ने आग जलाई और मैगी बनने लगी | मेरी तबियत ख़राब होती जा रही थी और सबके लिए चिंता की बात थी| थोड़ी देर में शाम होने वाली थी और हम वहीँ के वहीँ | मयंक के कहने पर मैं भी ठन्डे पानी में नहाने चला गया | लेकिन कोई फर्क नहीं | अब मैंने सबको बोल दिया कि यदि आधे घंटे में कुछ सुधार नहीं हुआ तो ट्रेक यहीं खत्म | यहाँ से वापस मुंबई लौटने की सोचेंगे | जब तक सबने मैगी खायी तब तक मैं कुछ देर सो लिया | अरे वाह ! संकेत अच्छे थे | मैं अच्छा महसूस कर रहा था और अभी प्लान बाकी था | अब आगे क्या करना है यह गाँव पहुँच कर देखने की सोची और जल्दी जल्दी हम गाँव की तरफ बढ़ चले |

कुमशेट गाँव और बाड़ू का आतिथ्य :

करीबन ५:३० पर हम कुमशेट गाँव में थे | यहाँ जा कर पता किया तो लोगों ने बताया कि अगला गाँव पछेती वाड़ी थोडा दूर है| शाम होने वाली है और रास्ते में जंगल भी है | अब तक सौरभ को गाँव में एक आदमी मिल गया जो हिंदी बोल लेता था | इनका नाम बाड़ू था और अपनी सहृदयता और सत्कार से इन्होने सबका दिल जीत लिया |
इन्होने हमको सलाह दी कि अभी आगे जाना आसान नहीं है | हमको गाँव के मंदिर में रुक जाना चाहिए और सुबह सुबह आगे की यात्रा करनी चाहिए | हम सब को भी यही सही लगा | परन्तु अगले दिन सोमवार था और मंगलवार को सुबह ऑफिस जाना था | यदि हम अगले दिन इतना लम्बा ट्रेक करते तो सम्भावना थी कि देर रात मुंबई पहुंचेंगे |आखिरी दिन कुछ अनहोनी हो गई तो और दिक्कत | यहाँ से एक और विकल्प था कि ट्रेक समाप्त कर दिया जाये | रात में यहीं रुकें और सुबह ६ बजे यहाँ से चलने वाली एकमात्र गाड़ी (राज्य परिवहन की बस ) पकड़ कर वापस चले जाएँ |यहाँ से वापस जाने के लिए सुबह बस पकड़ कर एक गाँव राजुर जाना था | वहां से फिर जीप या बस पकड़ के कसारा और वहां से मुंबई |
थोड़ी देर में ही विचार बन गया की अब आ ही गए हैं तो हरिश्चन्द्रगढ़ भी चले जायेंगे | बस अब सब तय हो चुका था |
गाँव के मंदिर के प्रांगण में बैठकर बहुत देर तक बाड़ू के साथ बात करते रहे | बाड़ू ने हमें पानी के लिए बर्तन भी दे दिया और आग जलने के लिए लकड़ी भी | साथ ही मंदिर से लगे हुए एक ग्रामीण समाज केंद्र के कक्ष के अन्दर खाना बनाने की जगह भी मिल गयी | हांलांकि यहाँ खिड़की दरवाज़े नहीं थे परन्तु सर के उपर छत तो थी | सौरभ ने गाँव के बच्चों से दोस्ती कर ली और वो बहुत देर तक १०-१५ बच्चों के साथ खेलता रहा | शाम होने के साथ मंदिर में भजन शुरू हो गए थे और अभिषेक मंदिर की तरफ चला गया | वास्तव में यह वातावरण इतना सुखद था की मैं शब्दों में लिख ही नहीं सकता | भाषा की दूरियों का तो किसी को एहसास ही नहीं हो रहा था | बाड़ू ने हमारी हर संभव मदद की | हमारे पास पुलाव का सामान था और आग जलाकर पुलाव पकने लगा |

गाँव के मंदिर में रात्रि विश्राम :
थोड़ी देर में बाड़ू जी के घर का बना हुआ स्वादिष्ट केकड़ा भी आ गया | सौरभ और मयंक ने पूरे चाव से वो खा लिया | इसमें गाँव के स्वाद के साथ बाड़ू का स्नेह भी था | बाड़ू से बात हुई तो उन्होंने कहा कि सुबह जल्दी प्रस्थान करना पड़ेगा और वो अगले गाँव पछेती वाड़ी तक हम लोगों को छोड़ देंगे | उसके आगे का रास्ता आसान है | अब खाना खाने के बाद बाड़ू को शुभरात्रि बोल कर हम सब अगले दिन कि चर्चाओं के साथ नींद के आगोश में समा गए |

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बेहतरीन सजीव विवरण और सुन्दर चित्र.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही सुन्दर वर्णन. चित्र तो अद्भुत हैं. कुछ चित्रों का प्रयोग अपने ब्लॉग पर कभी करबा चाहूँगा. अनुमति दें.

    जवाब देंहटाएं

पढ़ ही डाला है आपने, तो जरा अपने विचार तो बताते जाइये .....