सोमवार, 13 सितंबर 2010

फर्जी घुमक्कड़ त्रयम्बक श्रंखलाओं में...

योजना :
२ साल पहले एक अवसर मिला था त्रयम्बकेश्वर जाने का परिवार के साथ | लेकिन समय की कमी और गर्मी के मौसम की वजह से बस मंदिर के दर्शन ही कर पाया था | परन्तु तब से एक इच्छा थी कि त्रयम्बकेश्वर के चारों ओर फैली हुई सह्याद्रि की इन विहंगम श्रंखलाओं में फिर से जा पाऊँ | इसके लिए वर्षा ऋतु से अच्छा समय और क्या हो सकता था | मेरी इतनी इच्छा देख सौरभ के मन में भी जिज्ञासा हो गयी कि अब जा कर इस सौंदर्य को भी देख ही लिया जाये | दरअसल सह्याद्रि का त्रयम्बकेश्वर क्षेत्र अब तक हमसे अछूता रह गया था | तो पिछले सप्ताहान्त पर दो दिन त्रयम्बक की श्रंखलाओं में घूमने का विचार बना ही लिया | योजना ये थी कि शुक्रवार कि रात में ही मुंबई से निकल कर सुबह सुबह त्रयम्बकेश्वर पंहुचा जाये और ज्योतिर्लिंग के दर्शन के उपरान्त ब्रह्मगिरी पर्वत ( जो कि ब्रह्मा मंदिर और गोदावरी के उद्गम के लिए जाना जाता है ) पर ट्रेक किया जाये और अगले दिन अंजनेरी पर्वत ( जो कि हनुमान के जन्म स्थान और अंजनी माता के मंदिर के लिए प्रसिद्ध है ) का ट्रेक कर के मुंबई के लिए वापसी कर ली जाये | इस यात्रा में हम तीन लोग मैं , सौरभ और कौसिक जाने वाले थे |

त्रयम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग :

भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक त्रयम्बकेश्वर का अपना एक विशिष्ट स्थान है | यहाँ थोड़ी गहराई में तीन छोटे छोटे से लिंग ब्रह्मा , विष्णु , महेश के प्रतीक माने जाते हैं | सफ़ेद संगमरमर के बने ये तीनो लिंग सुबह की पूजा के बाद चाँदी के एक पंचमुखी मुकुट से ढक दिए जाते हैं |
नासिक से २८ किलोमीटर दूर गोदावरी के पवित्र तट पर स्थित यह मंदिर शिल्प कला का अद्भुत नमूना है | इस मंदिर का पुनर्निर्माण श्रीमंत बालाजी बाजीराव (नानासाहेब पेशवा ) द्वारा करवाया गया था | सन १७५५ से लेकर सन १७८६ तक कुल ३१ वर्ष में बने इस मंदिर के निर्माण का खर्च समकालीन मुद्रा में १६ लाख आँका जाता है |

ब्रह्मगिरी पर्वत/ त्रयम्बक गढ़ :

गोदावरी के उद्गम के लिए प्रसिद्द , ब्रह्मगिरी पर्वत अपने आप में श्रद्धा का केंद्र है | गौतम ऋषि , इस पर्वत और गोदावरी के बारे में बहुत सी कथाएं हैं |ये कथाएं ब्रह्मगिरी में स्थित अनेक मंदिरों से जुडी हुई हैं जिनमे से प्रमुख हैं : गोमुख / ब्रह्मा मंदिर (गोदावरी का उद्गम ), जटा मंदिर , गंगाद्वार आदि | ब्रह्मगिरी के शिखर पर त्रयम्बकगढ़ का किला है | त्रयम्बकेश्वर मंदिर से ही सामने फैला हुआ यह विशाल पर्वत बहुत आकर्षित करता है | ब्रह्मगिरी के उत्तर की तरफ एक दर्रा विनायक खिंड कहा जाता है और दक्षिणी ढाल पर महादरवाजा है जो किले का मुख्य द्वार हुआ करता था |
त्रयम्बक गढ़ का किला पहले यादव वंश के अधिपत्य में था | १६२९ ई० में यह किला शाहजीराजे के अधीन हो गया और मुगलों ने १६३६ ई० में इसे जीत लिया |

मुंबई से त्रयम्बकेश्वर : 

हमारा विचार था की शुक्रवार को ऑफिस के बाद रात में कोई नासिक की बस पकड़ ली जाएगी और रात नासिक स्टेशन पे काटने के बाद सुबह सुबह नासिक से त्रयम्बकेश्वर निकल लेंगे | महाराष्ट्र राज्य परिवहन की वेब साईट पर देखने पर पता चला कि रात में ११:१५ पर मुंबई सेंट्रल से त्रयम्बकेश्वर के लिए सीधी बस सेवा है और इसमें आरक्षण भी कराया जा सकता है | शाम को ऑफिस से ही कुछ देर से निकल कर मुंबई सेंट्रल से बस पकड़ी और करीब ५ बजे सुबह हम त्रयम्बकेश्वर में थे |
प्रसिद्ध तीर्थ होने के कारण त्रयम्बकेश्वर कस्बे में होटल और धर्मशालाओं की कोई कमी नही है | हमारा विचार २ दिन रुकने का था तो हमने एक होटल ले लिया और चाय पी कर स्नान आदि से निवृत्त हो कर मंदिर के दर्शन के लिए चल पड़े | उम्मीद के मुताबिक मंदिर में भीड़ थी परन्तु मेरी पिछली यात्रा की तुलना में बहुत कम | दर्शन के लिए करीब १:३० घंटा कतार में लगे रहे | मौसम अच्छा था और हल्की हल्की बारिश की वजह से कोई दिक्कत नही हुई अन्यथा गर्मी के मौसम में चट्टानें धूप से तप जाती हैं और दर्शन के लिए खड़े रहना मुश्किल हो जाता है | मंदिर के दर्शन के बाद हमने कुछ समय मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्णसुन्दर कला को देखने में बिताया | काले पत्थर का बना यह मंदिर परिसर बहुत खूबसूरत है और मुख्य मंदिर की दीवारों और शिखर पर विभिन्न मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं | मंदिर परिसर में कैमरा और मोबाइल फ़ोन ले जाना वर्जित है |

ब्रह्मगिरी की ओर : 

दर्शन के बाद बाहर निकल कर नाश्ता किया और फिर समय था ब्रह्मगिरी पर्वत की चढ़ाई का | मंदिर से थोडा आगे जाने पर ही कुशावर्त कुण्ड है | प्रतीकात्मक रूप से यहाँ से गोदावरी की धारा निकलती है | इस कुण्ड में स्नान का विशेष महत्व कहा जाता है | यहाँ से आगे त्रयम्बकेश्वर की गलियों से होते हुए हम आबादी से बाहर निकल गये और अब ब्रह्मगिरी की तलहटी में खड़े थे | इस जगह से दो रास्ते हैं , एक से आप ब्रह्मगिरी के शिखर पर पहुचते हैं और दूसरा गंगाद्वार मंदिर की तरफ जाता है | हम ब्रह्मगिरी की ओर चल दिए |
रास्ता शुरुवात में ज्यादा मुश्किल नही है | बहुत से श्रद्धालु जन ब्रह्मा मंदिर के दर्शन के लिए जा रहे थे | थोड़ी देर इस पथरीले रास्ते पर चलने के बाद एक जगह आराम किया और चाय पी | करीब एक घंटा हो गया था और इसके आगे बहुप्रतीक्षित चट्टान पर ही बनी हुई सीढ़ियों का रास्ता है | यहाँ से उपर देखने पर विशाल
चट्टान दिख रही थी और उसपर पानी का एक विशाल झरना था | हल्की हल्की बारिश में चलते हुए अब तक हम लोग भीग चुके थे और प्रकृति के सौंदर्य का भरपूर आनंद उठा रहे थे | ऐसे मौसम में फोटोग्राफी करने में कैमरा भीग जाने का डर था परन्तु बीच बीच में थोड़ी फोटोग्राफी भी कर ले रहे थे |

और यहाँ से शुरू होता है ठीक सीधी चट्टान में रास्ता | दूर से देखने पर तो आप सोच ही नही सकते की आप इसके उपर किसी भी तरीके से जा पाएंगे परन्तु इस पहाडी के उपर पहुचने के लिए भी चट्टान को काट काट कर सीढियां बनी हुई हैं | चट्टान के एक संकरे से कटाव के भीतर से हो कर उपर पंहुचा जा सकता है | मानसून के समय बारिश की वजह से उपर से तेज बहता हुआ पानी सीढ़ियों पर आता रहता है जो इसे थोडा सा मुश्किल बना देता है | पैर को धीरे धीरे जमा कर हम लोग भी उपर चढ़ गये | करीब ३५० सीढियां चढ़ना वो भी इन परिस्थितियों में थोडा रोमांचक था | और इसे और रोमांचक बना रहे थे बन्दर | पूरे रास्ते में बंदरों के झुण्ड मंदिर जाने वाले लोगों के कुछ खाने का सामान मिलने की आशा में खड़े थे | यदा कदा वो आपके सामान पर झपट भी सकते हैं | मेरे पास कुछ ना देख एक बन्दर मेरे
कंधे पर भी चढ़ गया | लेकिन वो गुस्से के मूड में नही था तो थोड़ी देर में उतर कर वापस भी चला गया |
सीढियां ख़त्म होते ही उपर कुछ चाय वगेरह की दुकानें भी हैं | हमें लगा था कि बस अब यहीं पर मंदिर होगा परन्तु अभी तो हम शिखर पर भी नही पहुचे थे | यहाँ से थोडा आसान रास्ता ही था जो उपर कि तरफ जा रहा था | इसी पर चलते हुए हम भी उपर पहुच गये |
यहाँ पहुचते ही घने कोहरे की वजह से कुछ भी दिखना बंद हो गया और हमारा स्वागत किया तेज़ हवाओं ने | यहाँ तक कि लगता था ये हवाएं आपको खड़े भी नही रहने देंगी और पीछे की ओर धकेल रही थी | यहाँ से एक रास्ता पहाडी के दूसरी तरफ नीचे उतरता रहा था और सब लोग इसी दिशा में जा रहे थे | दिखा तो नही परन्तु हमने अनुमान लगाया कि गोदावरी उद्गम और ब्रह्मा मंदिर इसी दिशा में होगा | यहाँ से एक पगडण्डी उपर कि तरफ भी जा रही थी तो हम लोग पहले उपर कि तरफ चल दिए | ब्रह्मगिरी पर्वत का शिखर तो कोहरे और बादलों से ढका था और हम जितना उपर चलते जाते लगता कि बस थोडा और आगे शिखर होगा | आखिर में बहुत उपर पहुच कर हमने वहीँ रुकने कि सोची और बादल छंटने का इंतज़ार करने लगे |
कभी कभी हवा के झोंके के साथ पल भर के लिए बादल उड़ जाते मगर अगले ही पल फिर वही बादलों की घनी चादर | अब बारिश रुक गई थी और तेज़ हवाओं से कपडे भी सूख रहे थे | यहाँ करीब एक घंटा बैठे रहे और फोटोग्राफी भी करते रहे | यहाँ से त्रयम्बकेश्वर कस्बे और आस पास के पहाड़ों के सुन्दर दृश्य कभी कभी दिख जाते थे |
 अब समय था नीचे उतर कर मंदिर की तरफ जाने का | ज्यादा उपयोग ना होने के कारण इस रास्ते पर उतरना थोडा मुश्किल था और फिसलने का डर था | धीरे धीरे हम मुख्य रास्ते पर पहुच गये और यहाँ से उतर कर गोदावरी उद्गम और ब्रह्मा मंदिर पहुच गये | यहाँ गाय के मुह की तरह बनी हुई पत्थर की शिला से पानी की धार निकलती है और एक छोटा सा कुण्ड है | इसके साथ ही लगा हुआ ब्रह्मा मंदिर है | मंदिर के दर्शन कर बाहर निकले और यहाँ चाय पीने के बाद चल पड़ेजटा मंदिर की तरफ |
अब रास्ता पहाड़ के किनारे पर से था और हमें दूसरी तरफ जाना था | रास्ते पर पूरी रेलिंग लगी हुई है और उसके नीचे गहरी खाई है | यहाँ से पानी की अनेक धाराएँ नीचे की तरफ बह रही थी और नीचे से उठ रही तेज़ हवा उसे उपर फैंक रही थी | नीचे कोई छोटी झील थी | अगर मौसम सही हो तो यहाँ से थोड़ी दूर पर विशाल उपरी वैतरणा झील के नज़रों का आनंद लिया जा सकता है | मुंबई के लिए पेय जल का बहुत बड़ा हिस्सा इसी झील से आता है |
थोड़ी दूर पर ही जटा मंदिर है | यह बहुत छोटा सा मंदिर है और इसकी भी अनेक किंवदंतियाँ हैं | यहाँ भी पंडित ने हमें ये सब बताया की कैसे शिवजी ने गोदावरी को अपनी जटाओं में बाँध लिया था और फिर गौतम ऋषि की तपस्या से वो पहाड़ी के दूसरी तरफ निकली |
दरअसल अब हम लोग बुरी तरह संदेह ग्रस्त हो गये थे | गोमुख से गोदावरी निकली , फिर जटा मंदिर पर धरती में विलीन हो गई | जबकि हमने तो गोदावरी को पहाड़ से नीचे जाते देखा था | और कथाओं के अनुसार गोदावरी फिर से पहाडी के दूसरी तरफ निकली जिसे गंगाद्वार कहा जाता है | हम लोगों को कुछ भी समझ नही आ रहा था की इस बात पर कितना यकीन किया जाये | यह कथा तो भागीरथी और शिवजी की भी सुनी थी |
खैर हमने प्रकृति का आनंद उठाना ज्यादा उचित समझा | अब कोहरा थोडा कम हो चुका था और ब्रह्मगिरी पर्वत के शिखर से नीचे तक के ढलान में हरी घास की चादर बहुत सुन्दर लग रही थी | यहाँ से वापस उपर की तरफ गये और फिर दूसरी तरफ उसी सीढ़ियों वाले रास्ते से नीचे उतर गये |
सीढियां ख़त्म होने के बाद अब एक रास्ता गंगाद्वार की तरफ जाता था | हांलांकि हम इन कथाओं से तालमेल नही बैठा पा रहे थे फिर भी हमने सोचा की जा कर मंदिर के दर्शन तो कर लें | करीब आधे घंटे में हम गंगाद्वार पहुच गये | हमें उम्मीद थी की यहाँ से गोदावरी की बड़ी सी धारा निकल रही होगी परन्तु यहाँ पर तो एक छोटा सा कुण्ड ही था | इसे बाहर से देख कर हम वापस नीचे उतर गये | अब बारिश बहुत तेज़ होने लगी थी और हम पूरी तरफ भीग चुके थे | करीब एक घंटे में हम होटल पहुच गये और चाय पी कर अगले दिन की योजना बनाने लगे |
आज का दिन बेहद अच्छा गुजरा था | बस ये गोदावरी के इतने उद्गम होने की बात हजम नही हो पा रही थी | थोडा थकान भी थी तो यह विचार बना कि सुबह उठ कर देखेंगे कि अंजनेरी जाना है या वापस मुंबई | थोड़ी देर में खाना खा कर गहरी नींद में सो गये और सुबह उठे तो सब थके हुए थे | अब निर्णय किया कि वापस मुंबई ही चला जाये | यहाँ से नाशिक की बस पकड़ ली और नाशिक से मुंबई के लिए बस मिल गये | शाम को करीब ६ बजे हम लोग मुंबई पहुच गये | अब बहुत जल्द एक और सप्ताहान्त, त्रयम्बक श्रंखला में ही स्थित हरिहर किले और अंजनेरी पर्वत के ट्रेक की योजना बनानी है |
       --------- घुमन्तू !                

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मोहिम किल्ले कर्नाला ....

पिछले कुछ दिनों से ना जाने कैसी व्यस्तता थी की प्लान बनाने के बाद भी कहीं घूम ही नही पाया | आखिर कार सौरभ और मैं दोनों खुद इतने परेशान हो गये कि एक कर्नाला किले के छोटे से ट्रेक का प्लान बना और तय हुआ कि कुछ भी हो इस सप्ताहान्त पर घर पे रुकना ही नही है | सुहावने मौसम का साथ था तो यह सप्ताहान्त एक बेहद खूबसूरत ट्रेक में बीत गया |

कर्नाला किला :
कर्नाला किला , मुंबई के बहुत करीब , रायगढ़ जिले में एक पहाडी के उपर बना हुआ है | इस पहाडी का चिमनी जैसा शिखर मुंबई पुणे और मुंबई गोवा महामार्ग से ही दिखता है | यह किला कर्नाला पक्षी अभयारण्य कि सीमा के अन्दर है तो किले के ट्रेक के साथ जंगल में तरह तरह के पक्षियों को भी देखा जा सकता है | यह किला सुरक्षा की दृष्टि के बहुत महत्वपूर्ण किलों में माना जाता था | कोंकण के समुद्री किनारे से महाराष्ट्र के भीतरी हिस्सों (विदर्भ आदि ) के लिए जाने वाले भोर घाट के मुख्य व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण रखने के लिया यह किला बहुत महत्वपूर्ण था | किले पर नियंत्रण के लिए हुए युद्धों का इतिहास इसके महत्व को दिखाता है |

संक्षिप्त इतिहास :
यद्यपि किले के निर्माण की तिथि के बारे में इतिहासकारों में मतभेद देखा गया है परन्तु इस किले को १२०० ई० से पहले का माना जाता है | १२४८ ई० से १३१८ ई० तक यह किला देवगिरि के यादव वंश और १३१८ ई० से १३४७ ई० तक तुगलक वंश के अधिपत्य में था | कर्नाला उत्तरी कोंकण जिलों की राजधानी हुआ करता था | बाद में यह किला गुजरात राज्य में आ गया जिसे १५४० ई० में अहमदनगर के निजाम शाह ने जीत लिया | बाद में वसई ( बेसेसीन ) के पुर्तगाल शाशकों ने इसे जीत लिया और गुजरात की सल्तनत को दे दिया |
छत्रपति शिवाजी ने १६७० ई० में इसे पुर्तगालियों से जीत लिया और उनकी मृत्यु के बाद १६८० में यह किला औरंगजेब के अधीन हो गया | १७४० ई० में इसे फिर से पुणे के पेशवा शाशकों ने जीत लिया और १८१८ ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे जीत लिया |

वसई से कर्नाला :
पिछले कुछ दिनों से हमने अपना रहने का ठिकाना मुंबई से थोडा और दूर वसई में कर लिया है | यहाँ से पनवेल के लिए सवारी गाडी मिल जाती है और सुबह ७ बजे सौरभ और मैं इस पर सवार हो लिए | वसई से निकले हुए ५ ही मिनट हुए होंगे कि ट्रेन के बाहर के दृश्य देख कर लगने लगा कि हम कहीं मुंबई से बहुत दूर निकल आये हैं | सह्याद्रि की हरी भरी पर्वत श्रंखलायें , उनके बीच बसे गाँव और खेत , जगह जगह पानी के तालाब और ट्रेन का सफ़र | वास्तव में यात्रा की शुरुवात ही मनमोहक थी | ट्रेन वसई से भिवंडी होते हुए पनवेल पहुचती है और करीब ९ बजे हम सुन्दर दृश्यों का आनंद लेते हुए पनवेल पहुच गये | यहाँ से थोड़ी ही दूर पर राज्य परिवहन का बस स्टेशन है और पैदल जाया जा सकता है |
पनवेल से कोई भी बस जो गोवा महामार्ग पर जा रही हो (अलीबाग या पेण की तरफ ) पकड़ कर कर्नाला अभयारण्य के मुख्य द्वार पर उतरा जा सकता है | यह पनवेल से करीब १२ किलोमीटर दूर है | अभयारण्य में प्रवेश के लिए २० रूपये का टिकेट है और करीब १० बजे हमने टिकेट ले कर ट्रेक शुरू कर दिया |

कर्नाला किले की ओर :
बाकी सब तो ठीक था परन्तु हमारी एक विशेष कला अक्सर हमारे ट्रेक में कुछ ना कुछ नए अनुभव दे जाती है | इस बार भी कुछ ऐसा हुआ कि हम खाने को कुछ भी ले कर नही चले | यहाँ तक की जल्दीबाजी में पानी की बोतल तक रखना भूल गये | हमारे अनुसार यह तो छोटा सा आसान ट्रेक था और इस विचार में हम बस उठे और चल दिए |
प्रवेश द्वार से थोड़ी दूर तक सड़क बनी हुई है और उसके आगे का पहाडी रास्ता किले तक ले जाता है | हमारा अनुमान था कि मुंबई के इतने करीब होने की वजह से हमें वहां भीड़ मिलेगी परन्तु इतनी सुबह तो कुछ बच्चों और थोड़े ट्रेकेर्स के अलावा कोई भी नही दिखा |
करीब आधा किलोमीटर चलने पर कुछ पिंजरों में पक्षी रखे हुए हैं | हम थोड़े आश्चर्य चकित थे कि हम तो अभयारण्य में आये हुए हैं और यह तो चिड़ियाघर लग रहा था | खैर एक पिंजरे में सुन्दर मोर पंखा फैलाये हुए चहलकदमी कर रहा था और हमने इस सुन्दर दृश्य का आनंद उठाया और चल पड़े |
यहाँ से एक बोर्ड जंगल से जाने वाले रास्ते का मिला और हम इस तरफ चल पड़े | थोडा दूर जा कर एक पानी का बहता धारा था तो जा कर हाथ मुह धो लिया और चढ़ाई शुरू कर दी | थोड़ी ही दूर चढ़े थे की पानी की प्यास सताने लगी | बरसात का नामो निशान नही था और सुन्दर धूप खिली हुई थी | यह चटक धूप दृश्यों को तो बेहद सुन्दर बना रही थी परन्तु चलते चलते प्यास तो लगनी ही थी | थोड़ी दूर पर बहता पानी दिखा परन्तु वो इतना साफ़ नही थी | रुमाल निकाल कर छानने की कोशिश की और एक दो घूंट पानी पी कर आगे बढ़ चले |
 रास्ता जंगल का ही था तो आराम से चलते जा रहे थे | जंगल में थोड़ी बहुत फोटो ग्राफी की और जंगल ख़त्म होते ही सामने किला दिखने लगा | वो शिखर जो नीचे से छोटा सा दिखाई दे रहा था , अब अपने पूरे आकार में दिख रहा था | इस शिखर की तलहटी पर मुख्य किला था और शिखर पर चढ़ना आसान नही है | पर्वतारोहण के प्रारंभिक अभ्यास के लिए अक्सर लोग यहाँ पर आते हैं |
अब हमें पहाड़ के उपर उपर ही किले के मुख्य द्वार कि तरफ चलना था और यहाँ से चारों तरफ के सुन्दर दृश्य दिखाई दे रहे थे | पानी कि कमी से गला भी सूख चुका था | थोड़ी ही देर में हम किले के बिलकुल नीचे पहुच चुके थे और अब यहाँ से सीढियां बनी हुई थी जो किले के मुख्य द्वार पर ले जा रही थी |

मुख्य द्वार पर थोड़ी फोटोग्राफी की और आगे बढ़ गये |यहाँ अब हम चिमनी के आकार के विशाल शिखर के ठीक नीचे खड़े थे और इसकी तलहटी में बहुत सारी गुफाएं दिख रही थी | दरअसल ये गुफाएं बरसात के पानी के भण्डारण के लिए थी और इस चट्टान के चारों तरफ बनी हुई थी | इन गुफाओं और इनमे भरे पानी को देख कर इन दुर्गम किलों को बनाने की सूझबूझ का अंदाजा लग जाता है | इतनी विशाल मात्र में पानी था की यह पूरे साल किले की जरूरत के लिए कम ना पड़ता |

हम लोग अक्सर ट्रेक के दौरान इस पानी का पीने के लिए प्रयोग करते हैं परन्तु मुंबई के नजदीक होने की वजह से पर्यटकों ने इसे बहुत गन्दा कर दिया था | खाने के सामान और अन्य चीज़ें इसमें पड़ी हुई थी | अब तो प्यासे ही रहना था |
खैर उपर पहुचने का आनंद अब प्यास पर हावी हो रहा था और हम आगे बढ़ रहे थे | दूसरी तरफ पहुच कर थोडा नीचे उतरना था और जो शायद किले का बुर्ज रहा होगा | इस किनारे पर आ कर तो मानो सारी थकान एक हवा के झोंके के साथ गायब हो गई | यहाँ से बैठ कर दूर कोलाबा , वाशी , एलिफेंटा गुफाओं , मुंबई हार्बर का विहंगम दृश्य दिख रहा था | भाभा परमाणु अनुसन्धान संसथान के रिएक्टर छोटे छोटे दिखाई दे रहे थे | चारों तरफ पानी के तालाब और झीलें और कुछ नदियाँ | और सबसे ज्यादा सुन्दर थी वो हवा | अरब सागर से उठते तेज़ हवा के झोंके ऐसे लग रहे थे मानो उड़ा ही ले जायेंगे | मंजिल पर पहुच कर इतना सब मिले तो फिर वापस जाने का मन किसे हो |

यहीं पर हमारा परिचय मुंबई से आये हुए ३ ट्रेकेर्स के साथ भी हुआ | ये लोग भी इस जगह पर आकर प्रकृति के सौंदर्य से मुग्ध से | हांलांकि यह इनका पहला ट्रेक था परन्तु अब ये सह्याद्रि की सुन्दरता से अछूते नही रह पाएंगे |
करीब १२ बजे हम लोग शिखर पर पहुचे थे और १-२ घंटे वहीँ पर बैठे रहे | इसके बाद बहुत से लोग आ चुके थे और अब वापस ही लौटना था | अब फिर से प्यास लग रही थी तो दौड़ते हुए हम नीचे की तरफ चल दिए | हमारा अनुमान था कि वापसी में जंगल में पक्षी देखने को मिलेंगे परन्तु निराशा ही मिली | हाँ , वापसी के समय मुख्य द्वार से करीब १ किलोमीटर कि परिधि में पक्षियों कि जगह प्रेमी युगल यहाँ वहां बिखरे पड़े थे | शायद मुंबई के नजदीक होने की वजह से इस जंगल को भी इन्होंने अपने प्रेमालाप का सुरक्षित स्थान बना लिया है | कुछ लोगों को देख कर हम भी उसी तरफ उतर गये और बाद में एहसास हुआ कि ये सही रास्ता नही बल्कि यहाँ तो प्रेमी लोग छुपे बैठे हैं |

यहाँ से वापस पनवेल के लिए टमटम मिल गया और पनवेल से ६:३० की वसई के लिए सवारी गाड़ी पकड़ कर हम वापस पहुच गये |

                                                                                                                                  ---निपुण पाण्डेय |

सोमवार, 5 जुलाई 2010

हरिश्चंद्र गढ़ ट्रेक

बरसात शुरू हुए बहुत दिन बीत चुके थे और अभी तक हम लोग किन्ही कारणोंवश प्रकृति से दूर ही रह गये थे ! पिछले २-३ सप्ताहान्त कुछ ऐसे काम निकल आते थे कि ट्रेकिंग के प्लान धरे के धरे रह जाते ! आखिर इस सप्ताहान्त पर हरिश्चन्द्रगढ़ के ट्रेक का विचार बना ! जाने वाले लोगों में मैं और सौरभ ही थे !  सौरभ का भाई सुयश भी इन दिनों यहीं था तो आखिर में हम ३ लोग हो गये !

हरिश्चन्द्रगढ़ के पिछले ट्रेक में हम समय की कमी की वजह से प्रसिद्ध कोंकण काड़ा नही जा पाए थे तो इस बार कोंकण काड़ा जाना बहुत जरूरी था ! प्लान कुछ ऐसा बना की रात में मुंबई से निकलेंगे और सुबह सुबह खिरेश्वर गाँव से ट्रेक प्रारंभ कर देंगे! रात में गुफा में ही रुका जायेगा और अगले दिन सुबह सुबह वापसी की जाएगी ! परन्तु मौसम के रंगों के हिसाब से ये प्लान भी बदलता ही रहा वास्तव में वापसी की यात्रा एक बार रोमांचक होनी शुरू हुई और होती ही रह गयी |

हरिश्चन्द्रगढ़: 

हरिश्चन्द्रगढ़ की गणना बहुत प्राचीन किलों में होती है |बहुत से पुराणों (मत्स्यपुराण , अग्निपुराण , और स्कन्दपुराण आदि) में इसका उल्लेख मिलता है | इस किले को छठी शताब्दी में कलचुरी वंश के शासनकाल में बना हुआ माना जाता है | बहुत सी गुफाएं ११वीं शताब्दी में बनी हुई मानी गई हैं | गुफाओं में भगवान विष्णु की मूर्तियाँ हैं | यहाँ के विविध निर्माण इसके बाद यहाँ विभिन्न संस्कृतियों के आगमन को दर्शाते हैं | खीरेश्वर गाँव में नागेश्वर मंदिर , हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर और केदारेश्वर गुफा में बनी अनुकृतियाँ इस किले को मध्यकालीन समय का बताती हैं | इसके बाद यह किला मुगलों के नियंत्रण में था जिसे मराठा वंश ने सन १७४७ में अपने नियंत्रण में ले लिया |
इस एतिहासिक महत्व के साथ ही यहाँ और भी जगहें बहुत प्रसिद्ध हैं : कोंकण काड़ा , तारामती चोटी, केदारेश्वर गुफा ,हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर आदि |

मुंबई से खिरेश्वर :

हरिश्चन्द्रगढ़ पहुचने के लिए ३-४ रास्ते हैं | इनमे से तोलार खिंड (दर्रा) से होते हुए रास्ता थोडा सा रोमांचक परन्तु लम्बा है ! अन्य रास्तों में से पाचनै गाँव से जाने वाला रास्ता छोटा और आसान है ! बाकी २ और रास्ते हैं जो बरसात के समय थोड़े मुश्किल हो जाते हैं |
शाम को ५:३० पर ऑफिस से निकलने के बाद ट्रेन पकड़ कर करीब ९ बजे हम लोग कल्याण पहुच गये | कल्याण से अहमदनगर जाने वाली कोई भी बस जो माल्सेज घाट से होते हुए जाती है, पकड़ी जा सकती है ! उतरने की जगह माल्सेज घाट के थोडा सा आगे खूबी गाँव के पास है ! १०:३० की अहमदनगर जाने वाली आखिरी बस पकड़ कर हम करीब १ बजे खूबी फाटा के करीब पहुच गये | खूबी फाटा से करीब १ किलोमीटर पहले एक ढाबे पे बस रुकी और हम यहीं पे उतर गये ! हल्की हल्की बारिश हो रही थी और घना अँधेरा था | ढाबे पे चाय पीने के बाद हम लोगों ने सोचा की अँधेरे में ही खीरेश्वर गाँव तक चले जाते हैं और वहां कुछ देर रुकने के बाद फिर उजाला होने पर ट्रेक प्रारंभ करेंगे | महामार्ग पर ही करीब १ किलोमीटर चलने पर हम लोग खूबी फाटा पर पहुच गये ! यहाँ से एक कच्ची सड़क से होते हुए करीब ५-६ किलोमीटर दूर खिरेश्वर गाँव है | सड़क एक बहुत बड़े बाँध के किनारे किनारे ही बनी हुई है ! इस समय बारिश बहुत हल्की थी परन्तु कोहरा इतना घना था की कुछ भी नही दिख रहा था | धीरे धीरे चलते हुए आगे बढ़ने लगे | कुछ देर बाद याद आया की इतनी रात में गाँव में कहाँ रुकेंगे | गाँव में कोई स्कूल तो था पर कहाँ पर यह हमको पता नही था और इस समय तो सब सोये होंगे | अचानक मुझे याद आया की गाँव के कुछ पहले एक बहुत पुराना शिव मंदिर है | विकीमैपिया पर मैंने इसकी स्थिति भी थोड़ी देखी हुई थी |
थोडा और आगे चलने पर एक तरफ लाईट जलती हुई दिखी | कोहरे की वजह से और तो कुछ समझ नही आया | यह सोच कर की ये मंदिर हो सकता है हम लोग उस दिशा में बढ़ गये! थोड़ी दूर चलने पर मंदिर आ गया |
नागेश्वर मंदिर एक यादव काल में बना हुआ एक प्राचीन शिव मंदिर है | दीवारों पर अनेक कलाकृतियाँ हैं जिनमे प्रमुख है - शेषशायी विष्णु की १.५ मीटर लम्बी प्रतिमा जो मुख्य द्वार के ठीक उपर है |
सुबह ३ बजे टोर्च की रौशनी के सहारे हम लोग नागेश्वर मंदिर में पहुच गये | यहाँ करीब एक घंटा रुके और थोड़ी सी नींद पूरी कर ली | इसके बाद यहाँ से निकल कर गाँव से होते हुए आगे बढे | इतनी सुबह गाँव में बस कुत्तों के भोंकने की आवाजें आ रही थी | हमें याद था की पिछली बार गाँव से ठीक उपर एक आखिरी घर है जिसमे चाय की दुकान भी है | हमने सोचा था की वहां जा कर चाय मिल जाएगी और चाय पी कर हम आगे बढ़ेंगे | हमारी आवाजों से घर के लोग उठे परन्तु वहां दूध नही था और अब तो चाय भी नही मिलनी थी | हल्की बारिश थी और ठंडा भी लग रहा था|
कुछ देर घर के बाहर बैठे रहे और करीब ५ बजे हमने आखिर गाँव छोड़ कर जंगल में प्रवेश कर लिया |

खिरेश्वर से तोलार खिंड (दर्रा ) और चट्टान का रास्ता :

गाँव से आगे का रास्ता जंगल से होते हुए था और अभी थोडा अँधेरा ही था | रास्ता मालूम ही था इसलिए धीरे धीरे बढ़ते रहे | हमें लग रहा था की १-२ घंटे में जल्दी से चट्टान के रास्ते पर पहुच जाएँ क्योंकि बारिश के मौसम में चट्टानों की फिसलन के करें इसपर चढ़ना थोडा रोमांचक हो जाता है | 
बीच बीच में हल्की बारिश भी हो रही थी और घने कोहरे की वजह से हम लोग भीग ही चुके थे | करीब ७:४५ पर हम लोग तोलार खिंड में थे | यहाँ पर कुछ देर रुके और फिर चट्टान की ओर बढ़ चले |





इस रास्ते के कुछ चित्र नीचे लगा रहा हूँ :
 रास्ता बहुत मुश्किल नही था क्युकी एक बार इस पर जा चुके थे | बस अभी थोड़ी फिसलन थी परन्तु जरा सी भी गलती मुश्किल में डाल सकती थी क्योंकि नीचे सीधी चट्टान थी |

करीब आधे घंटे में हम लोग उपर पहुच गये और फिर थोडा आराम किया |

इसके बाद का रास्ता ज्यदा मुश्किल नही है और ७ छोटी छोटी पहाड़ियों पर चढ़ना उतरना है | घने कोहरे की वजह से कुछ दिख नही रहा था और कैमरे के लेंस में भी पानी पड़ गया था | इसलिए यहाँ पर फोटोग्राफी बंद कर दी और सीधे मंदिर की और बढ़ चले |

हरिश्चन्द्रगढ़ में :

करीब ९:४५ पर हम लोग हरिश्चन्द्रगढ़ पहुच गये | सप्ताहान्त होने की वजह से बहुत से लोग आये हुए थे | मंदिर में थोड़ी भीड़ देख कर हम मंदिर के ठीक नीचे बनी केदारेश्वर गुफा की और चल पड़े |
केदारेश्वर गुफा एक बड़ी सी गुफा है और इसमें पूरे साल पानी भरा रहता है | इसके मध्य में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है | ये सब एक ही चट्टान में उकेरे हुए हैं | शिवलिंग के उपर कुछ छत्र /मंदिर सा बना हुआ है और चारों तरफ चार स्तम्भ | इनमें से २ स्तम्भ टूट चुके हैं | यहाँ पहुच कर सीधे पानी में घुस गये और डुबकी लगा कर शिवलिंग तक पहुचे | यहाँ पर एक डुबकी सारी थकान मिटा देने वाली होती है |
इसके बाद हम वापस उपर आये और मुख्य हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर के दर्शन किये | अब समय था कुछ खाने का | बरसात में सप्ताहान्त पर गाँव के कुछ लोग गुफाओं में ही आ जाते हैं और ट्रेकेर्स को भोजन उपलब्ध करा देते हैं | मंदिर के उपर की तरफ बहुत सी पुरानी गुफाएं हैं | हमारा विचार था की रात में यहीं किसी गुफा में सो जायेंगे और अगले दिन सुबह निकलेंगे |
उपर गणेश गुफा में पहुचे और यहाँ चाय पी और खाने का आर्डर दे दिया | इसके बाद समय था कोंकण काड़ा जाने का | यहाँ भी हमारी उम्मीद के मुताबिक कुछ नही दिख पाया सिवाय कोहरे के ! थोड़ी देर यहाँ बैठे रहे और फिर वापस गुफा में आ गये |
गुफा में अब तक गरमा गरम भोजन तैयार हो चुका था | आलू (बटाटा ) की सब्जी , भाकरी (चावल के आटे की रोटी ), पेटली (कढ़ी जैसा कुछ ) और गरमा गरम भात का आनंद लिया |
अब पेट भर खाने के बाद आगे का प्लान बनाना था | गुफा में रुकने से भी कुछ होना नही था क्युकी कोहरा छंटने की कोई उम्मीद नही थी | हमारा प्लान था की अगले दिन सुबह पाचनै गाँव से ६ बजे की बस पकड़ ली जाएगी जिसके लिए सुबह ४ बजे निकलना होता | हमने सोचा की क्यूँ ना अभी नीचे गाँव में चले जाएँ और वहीँ मंदिर या स्कूल में सो जाये | वैसे गाँव से एक बस सुबह ६ बजे और दूसरी ११ बजे है और इनके बीच में एक जीप भी चलती है | अगर किस्मत अच्छी हुई तो कोई ट्रक या टेम्पो मिल गया तो उससे निकल लेंगे |
करीब १ बजे हम हरिश्चन्द्रगढ़ के पाचनै की तरफ चल पड़े और बीच में झरनों का आनंद लेते हुए ३ बजे गाँव में पहुच गये | गाँव में एक मात्र चाय की दुकान थी जो उस दिन बंद थी |
अभी ३ ही बजा था और रात तक समय काटना था  | हमें यहाँ से राजुर जाना था और हमने विचार बनाया कि अगर राजुर १५ किलोमीटर हुआ तो हम पैदल ही निकल लेंगे और ३ घंटे में पहुच जायेंगे | यहाँ गाँव में पूछने पर पता चला कि राजुर २७ किलोमीटर है | इतना चलना तो मुमकिन नही था | साथ ही एक सज्जन ने बताया कि यहाँ से ९ किलोमीटर दूर एक गाँव है और वहां तक कभी कभी टेम्पो आ जाते हैं | हमने सोचा कि चलो ९ किलोमीटर चलने में २ घंटे कट ही जायेंगे और अगर वहां कुछ नही मिला तो मंदिर तो होगा ही | रात काट ली जाएगी | और हम चल पड़े |
परन्तु हमारी किस्मत थोड़ी अच्छी थी कि गाँव के दूसरे किनारे पर ही हमको एक जीप खड़ी मिल गयी | यहाँ जीप के मालिक से बात की तो वो ५०० रूपये में हमें राजुर छोड़ने के लिए राजी हो गया | लेकिन यहाँ कुछ देर रुकना पड़ा क्योंकि उसे कुछ काम निपटाने थे | यहाँ से निकल कर आराम से ५:१५ पर राजुर पहुच गये | राजुर से कसारा (जहाँ से मुंबई के लिए लोकल ट्रेन मिलती है ) के लिए आखिर बस ५:४० पर थी | बस स्टैंड पर पहुचने पर पता चला की वो बस तो आज ५ बजे ही चली गयी | सरकारी तंत्र का इससे ज्यादा अच्छा अनुभव पहले कभी नही हुआ था | ५:४० की बस ५ बजे ही कैसे जा सकती है | २-३ और लोगों से पूछने पर यकीन हुआ की बस जल्दी चली गई है |
अब यहाँ से दूसरा विकल्प था की घोटी (इगतपुरी के पास )के लिए जीप मिल जाएगी और फिर वहां से कसारा निकल लेंगे | अब फिर जीप में सवारी भरने का इंतज़ार करना पड़ा और फिर सुन्दर दृश्यों के बीच पहाडी रोड में इठलाती जीप चल पड़ी घोटी की तरफ | राजुर से घोटी ४६ किलोमीटर है और करीब ७ बजे हम लोग घोटी पहुच गये | यहाँ चाय पी और चाय वाले ने बताया की यहाँ से भी कसारा के लिए आखिरी बस ५ मिनट पहले जा चुकी है | एक विकल्प था की यहाँ से इगतपूरी निकल लें और वहां से कोई एक्सप्रेस ट्रेन पकड़ लें | अब बारिश होने लगी थी और ना ही कसारा ना इगतपुरी के लिए कुछ मिल रहा था | कसारा यहाँ से २५ किलोमीटर है |
आखिर में एक ऑटो मिला जो कसारा छोड़ने के लिए मान गया और यकीन मानिये ऑटो की इस चिरस्मरणीय  यात्रा को मैं किसी उडान खटोले से कम नही कहूँगा | मुंबई नासिक महामार्ग पर एक ऑटो रिक्शा ट्रकों और गाड़ियों को चीरता हुआ बढ़ रहा था और वो भी बारिश में जब कुछ ना दिख रहा हो | ऑटो वाला बोला सर में आगे वाली इंडिका को देख के उसके पीछे पीछे चला रहा हूँ और उसकी गति ६०-७० किलोमीटर प्रति घंटा से कम ना रही होगी | खैर करीब ८ बजे हम कसारा पहुच गये |

कसारा पहुच कर देखा की ट्रेन ८:१० की है तो जल्दी से टिकेट लिए और प्लेटफोर्म में पहुचे | यहाँ आ कर मानो मुंबई की दुनिया का पता चला हो | मुंबई में दोपहर से बारिश हो रही थी और मध्य रेलवे की लोकल ट्रेन्स बंद थी | शाम ३ बजे के बाद से एक लोकल ६ बजे गयी थी और अब कोई भरोसा ना था| इंतज़ार के अलावा कोई और रास्ता नही था | करीब ९ बजे एक ट्रेन आई तो सुकून की सांस ली | अब कोई दिक्कत ना थी और यहाँ से दादर पहुच कर फिर वसई के लिए ट्रेन पकड़ ली | करीबन १ बजे हम लोग घर पहुच गये और इस थकाऊ और तीव्रगति यात्रा की समाप्ति हुई | चूँकि इस बार फिर कोहरे की वजह से हम हरिश्चन्द्रगढ़ की सुन्दरता और कोंकण काड़ा के दृश्यों का आनंद नही ले पाए तो अब सितम्बर में बारिश के बाद फिर से जाने का विचार बन चुका है |