शनिवार, 9 मार्च 2013

थार मरुस्थल : जोधपुर में एक दिन ( भाग - तीन)

यदि किन्ही कारणोंवश आप थार यात्रा का प्रथम और द्वितीय भाग नहीं पढ़ पाए हैं तो कृपया यहाँ देखें :  
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आज हमारी यात्रा का तीसरा दिन था और सुबह सुबह ५ बजे ट्रेन जोधपुर रेलवे  स्टेशन पहुँच गयी। अब सबसे पहला काम था होटल ढूँढना जहाँ कुछ देर आराम किया जाये । रेलवे स्टेशन के पास में ही एक होटल में कमरा ले लिया और कुछ देर आराम किया । करीब ९ बजे हम लोग होटल से निकल पड़े जोधपुर घूमने के लिए । सबसे पहले रेलवे स्टेशन के पास ही एक दुकान पर कचौरी और गरमा गरम जलेबी का नाश्ता किया और फिर जोधपुर की घूमने वाली जगहों के बारे में पता किया। लोगों ने हमें सलाह दी कि आम तौर पर लोग पूरे दिन के लिए ऑटो बुक कर लेते हैं जो उन्हें जोधपुर की सारी जगहें घुमा देता है। कुछ ऑटो वालों से बात करने के बाद आखिर में हमने ४५० रुपये में पूरे दिन के लिए ऑटो कर लिया जो हमें जोधपुर की ५ मुख्य जगहें घुमाने वाला था ।
सबसे पहले हम निकल पड़े उमेद भवन पैलेस की तरफ । उमेद भवन पैलेस को पहले छित्तर पैलेस कहा जाता था क्योंकि यह जोधपुर की सबसे ऊँची पहाड़ी छित्तर पहाड़ी पर बना हुआ है । सन १९२९ में जब जोधपुर रियासत की प्रजा भयंकर सूखे से जूझ रही थी तब तत्कालीन महाराजा उम्मेद सिंह ने प्रजा को रोजगार देने के लिए इस महल की नींव रखी थी । जहाँ जैसलमेर में पीले रंग के पत्थर की बनी हुई इमारतें हैं वहीँ जोधपुर में लाल पत्थर पाए जाने की वजह से अधिकतर भवन लाल पत्थर के बने हुए हैं । उमेद भवन की गिनती विश्व के सबसे बड़े निजी निवास स्थानों में की जाती है । यह विशालकाय भवन तीन भागों में बंटा हुआ है : एक भाग में जोधपुर के राजा के वंशज रहते हैं , दूसरा भाग राजा के वंशजों ने होटल ताज को लीज पर दिया हुआ है जिसे ताज भवन पेलेस के नाम से जाना जाता है और तीसरा छोटा सा भाग संग्रहालय के रूप में आम पर्यटकों के लिए खुला हुआ है ।
हमारे ऑटो वाले गाइड ने हमें बताया कि यह होटल राजवंश की आमदनी का मुख्य साधन है और उमेद भवन के आस पास की बहुत सारी जमीन भी इस राजवंश की है । इस पहाड़ी के आस पास राजवंश द्वारा ही बड़ी आलीशान कोठियों का निर्माण कर बेचा जा रहा है। सचमुच प्रजातंत्र के बावजूद भी राजाओं के वंशजों के इस राजसी जीवन का मतलब समझ नहीं आता। यही बात हमने गुजरात में मांडवी यात्रा के दौरान भी महसूस की थी । लोग राजवंश को अब भी इतना सम्मान देते हैं जिसे देख कर लगता है कि शायद प्रजातंत्र तो आ गया पर ये राजवंश अभी कुछ पीढ़ियों तक और हमारे मन में राज करेंगे ।
खैर हमने संग्रहालय का टिकट लिया और भीतर गए । यहाँ जोधपुर के राजवंश का इतिहास दर्शाते हुए कई चित्र और पुराने राजाओं की उपयोग की गयी वस्तुएं और उनके वस्त्रादि रखे हुए थे । राजवंश द्वारा पर्यटकों से इस संग्रहालय के लिए टिकट वसूला जाना और संग्रहालय में रखा सामान हमें कुछ ख़ास पसंद नहीं आया और हम जल्दी जल्दी बाहर आ गए । 


इसके बाद हम जोधपुर के बाजारों से होते हुए मेहरानगढ़ किले की तरफ चल दिए ।  मेहरानगढ़ किले को जोधपुर की शान कहा जा सकता है । जोधपुर में एक विशाल पहाड़ी पर बना हुआ मेहरानगढ़ किला दूर से ही अपनी भव्यता की वजह से सबको आकर्षित कर लेता है । यह किला भारत के प्राचीनतम किलों में से एक है और भारत के समृद्धशाली अतीत का प्रतीक है|   सन १४५९ में जोधपुर के तत्कालीन राजा, राव जोधा ने अपनी राजधानी को मंदोर के तकरीबन एक हज़ार साल पुराने किले से हटाकर अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित स्थान में ले जाने की सोची और मंदोर से लगभग ९ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ किले की नींव रखी गयी । इस पहाड़ी को भोर चिड़िया कहा जाता था क्योंकि यहाँ पर बहुत सारे पक्षी रहा करते थे ।
चूँकि राठौर वंश के शासक सूर्य देवता के उपासक थे इसलिए इस किले का नाम मिहिर (संस्कृत शब्द - अर्थ सूर्य ) + गढ़ रखा गया जो बाद में मेहरानगढ़ कहलाने लगा ।  इस किले का निर्माण कार्य कई वर्षों तक चला और महाराजा जसवंत सिंह (१६३८-७८) के समय में पूर्ण हुआ । किले की दीवारें जो कहीं कहीं पर ३६ मीटर तक ऊँची हैं इसे उस समय के कुछ सर्वाधिक सुरक्षित किलों में से एक बनाती हैं। इस किले में प्रवेश के लिए ७ द्वार हैं और एक गुप्त द्वार भी है । किले के मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश करते ही दीवारों पर तोप के गोलों के निशान देखे जा सकते हैं । इस किले की रखरखाव का काम अब भी राजवंश के हाथों में ही है । किले के उपर जाने के लिए अब लिफ्ट भी लग चुकी है और  २० रुपये का टिकट दे कर आप लिफ्ट से उपर जा सकते हैं ।
किले के अन्दर अलग अलग राजाओं द्वारा बनाये गए अलग अलग महल हैं जो उस समय की
समृद्ध शिल्प कला के द्योतक हैं । शीशा महल , फूल महल , मोती महल , तख़्त विलास आदि इनमें से मुख्य हैं । मेहरानगढ़ किले में स्थित संग्रहालय में पुराने समय की अनेक वस्तुएं आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं । आप किले के इन महलों के शिल्प और संग्रहालय की वस्तुओं का आनंद वर्णन की अपेक्षा इन चित्रों को देख कर ज्यादा अच्छी तरह ले सकते हैं :   ( चित्रों को बड़ा कर के देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें )


कांच की नक्काशी 
यह प्राकृतिक रंग अभी तक ज्यों के त्यों हैं 
मंत्रणा कक्ष (उपर झरोखों से राजवंश की महिलाएं भी इन्हें देख सकती थी  )

छत पर सुन्दर रंगों से नक्काशी 
फूल महल की छत पर राजाओं के चित्र 
शयन कक्ष की अद्भुत छत 



इन महलों से होते हुए हम किले के दूसरी तरफ पहुँच गए जहाँ से पूरे जोधपुर शहर का भव्य दृश्य देखा जा सकता है । इस स्थान पर पहुँच कर किले की विशालता का अनुमान होने लगता है । दीवारों के उपर अनेक तोपें रखी हुई हैं और पूरे शहर के साथ सामने उम्मीद भवन पेलेस भी दिखाई देता है । नीले रंग में रंगे हुए जोधपुर शहर का यहाँ से नज़ारा वाकई अद्भुद था । 
यहाँ से आगे जोधपुर के शासकों और प्रजा की कुलदेवी चामुंडा देवी का विशाल मंदिर है । चामुंडा माता के प्रति जोधपुर के लोगों में विशेष आस्था है । सन २००८ में इस मंदिर में हुई भगदड़ में करीब २४९ लोगों की मृत्यु हो गयी थी और करीब ४०० लोग घायल हुए थे ।
अब तक हम इस विशालकाय किले में घूमते घूमते सचमुच थक चुके थे परन्तु अभी भी लग रहा था कि शायद कुछ छूट गया । परन्तु हमें और जगहें भी देखनी थी इसलिए हम वापस किले से नीचे उतर आये जहाँ ऑटो वाले हमारे गाइड हमारा इंतज़ार कर रहे थे ।
मेहरानगढ़ किले से नीचे उतरते ही थोड़ी दूर पर जसवंत थाड़ा  है जिसका निर्माण महाराजा सरदार सिंह ने महाराजा जसवंत सिंह- द्वितीय की स्मृति में सन १८९९ में करवाया था । सफ़ेद संगमरमर से बने हुए इस स्मारक में अब अन्य राजाओं की भी समाधियाँ हैं ।  मेहरानगढ़ किले के शिल्प सौंदर्य और भव्यता के सामने हमें जसवंत
थाड़ा की सुन्दरता ज्यादा आकर्षित नहीं कर सकी और हम इसे बाहर से देख कर ही मंदोर गार्डन की तरफ चल पड़े । अब तक भूख भी लग चुकी थी और रास्ते में एक जगह भोजन करने के बाद लगभग ३:३० बजे हम मंदोर गार्डन पहुँच गए ।

जैसा कि मैंने शुरुआत में बताया था, सन १४५९ में राव जोधा के समय तक मंदोर ही जोधपुर रियासत की राजधानी हुआ करती थी जिसे सत्रहवीं शताब्दी के बाद जोधपुर का राजकीय बाग़ बना दिया गया । यहाँ पर बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ बाग़ है जिसमें पुराने किले के कुछ अवशेष हैं । राजधानी विस्थापित होने के बाद यहाँ पर राजाओं के स्मारक (छत्रियां) बनाये जाने लगे । यह स्मारक भी बेहतरीन शिल्पकला के नमूने हैं । भिन्न भिन्न काल में बने हुए ये स्मारक तत्कालीन शिल्प के अनुरूप अलग अलग तरीके से बने हुए हैं । कुछ में बड़े गुम्बद भी हैं और कुछ मंदिरों की तरह कुछ मंजिल ऊँचे बनाये गए हैं । मंडोर गार्डन में घूमने के बाद हमें ऐसा लगा कि इन स्मारकों को संरक्षित करने के लिए कुछ और प्रयास करने होंगे अन्यथा मंदोर गार्डन भी बहुत सी धरोहरों की तरह सिर्फ प्रेमी युगलों के विहार की जगह बन कर रह जायेगा ।  आप भी कुछ फोटो देखें :
 
सुख दुःख साझा करते युगल 

मंदोर गार्डन घूमने के बाद अब हम लोग थक चुके थे और ऑटो वाले ने हमें वापस होटल छोड़ दिया । होटल में कुछ देर आराम करने के बाद सामान ले कर पैदल ही जोधपुर के बाज़ारों की तरफ निकल पड़े । कुछ देर यूँ ही घूमते रहे और एक जगह रुक कर भोजन किया। भोजनोपरान्त अब समय था रेलवे स्टेशन की तरफ जाने का जहाँ से रात में दिल्ली के लिए ट्रेन में आरक्षण था । कुछ देर में ३ दिन की राजस्थान यात्रा की खूबसूरत यादों को समेटे हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए । 
नेहा को अब तक मैंने सिर्फ बताया ही था कि हम किस तरह के घुमक्कड़ थे । मेरे विचार में यदि आप घूमने निकले हैं तो फिर थकान और आराम की बातों को कुछ दिनों के लिए टाल ही देना चाहिए । इन तीन दिनों में नेहा थक तो चुकी थी परन्तु इतनी नयी जगहों को देखने का आनंद उसकी थकान से कहीं ज्यादा था ।  
बहुत जल्द अपनी अगली यात्रा की कहानी के साथ मिलता हूँ तब तक के लिए घूमते रहिये ....  

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

थार मरुस्थल : लहराती रेत के अद्भुत पहाड़ ( भाग - दो )


यदि किन्ही कारणोंवश आप थार यात्रा का प्रथम भाग नहीं पढ़ पाए हैं तो कृपया यहाँ देखें : थार मरुस्थल : लहराती रेत के अद्भुत पहाड़ ( भाग -एक ) 
थार मरुस्थल में सूर्योदय 


आज थार में हमारा दूसरा दिन था और सुबह करीब साढ़े छः बजे ही हम खूरी गाँव के आस पास टहलने निकल पड़े  । पप्पू भाई ने बताया था कि डेजर्ट पार्क की तरफ से सुबह सुबह ही गाँव में बहुत सारे मोर आ जाते हैं । दरअसल गाँव के लोग सुबह सुबह नियम से इन मोरों को दाना डालते हैं । सचमुच मोरों का पूरा झुण्ड पूरी मस्ती में इस तरह गाँव के चक्कर लगा रहा था मानो गाँव के मुआइने
रेगिस्तान गेस्ट हाउस
पर निकला हो। हम भी कुछ देर इनके पीछे पीछे गाँव में घूमते  रहे ।
अब नाश्ता करने के बाद समय था खूरी से विदा लेने का। करीब १० बजे पप्पू भाई के साथ हम लोग जैसलमेर की तरफ चल दिए । आज का हमारा विचार था जैसलमेर के किले और अन्य एतिहासिक धरोहरों को घूमने का । नेहा को पता था कि इस यात्रा में मेरा मन भारत पाकिस्तान सीमा पर आखिरी स्थान तनोत और भारत पाक के युद्धस्थल लोंगेवाला जाने का था परन्तु समयाभाव की वजह से हमने इसे योजना में शामिल नहीं नहीं किया था । यह सोचकर उसने मुझसे कहा कि अगर हम जैसलमेर के किले के स्थान पर तनोत जा सकते हैं तो अच्छा रहेगा । हमने पप्पू भाई से कुछ जानकारियां ली और बातों ही बातों में हमारी योजना बदल गयी । पप्पू भाई भी अब तक समझ चुके थे कि मैं किस तरह का घुमक्कड़ हूँ और उन्होंने हमें सलाह दी कि चूँकि जैसलमेर के किले में लोग रहते हैं और उसके मुकाबले तनोत जाना हमारे लिए ज्यादा अच्छा रहेगा । बस, जैसलमेर पहुँचने से पहले ही उन्होंने हमारे लिए एक गाडी का प्रबंध कर दिया।

जैसलमेर पहुंचकर हमने चाय वगैरह पी और तब तक गाड़ी आ चुकी थी । आगे की यात्रा में हमारे ड्राईवर अशोक जी थे जो काफी उम्रदराज होने के साथ साथ बड़े सज्जन भी थे । जैसलमेर से आगे निकलते ही कुछ दूर  रण का क्षेत्र आ जाता है । यहाँ पर पथरीले इलाके में खेती वगैरह की ज्यादा सम्भावना नहीं है ।  पूरा इलाका पवनचक्कियों (विंड मिल्स ) से भरा पड़ा है जिसे देख कर लगा कि सचमुच मरुस्थल की हवा भी कितने उपयोग की है । चूँकि हमारे पास समय ज्यादा नहीं था इसलिए हम बिना रुके चलते रहे । बीच बीच में कुछ गाँव भी दिख जाते थे। इन गावों के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन पशुपालन है । यहाँ पर चूना पत्थर बहुतायत में है और जगह जगह इसकी खदानें देखी जा सकती हैं । अब यह पथरीला इलाका ख़त्म हो रहा था और हम धीरे धीरे मरुस्थल में प्रवेश करने लगे थे । सीधी सुनसान सड़क रेत के टीलों पर चढ़ती उतरती जाती थी और सामने अगले टीले से आगे कुछ नहीं दिखता था ।   ये रेत के टीले
झाड़ियों से भरे हुए थे और कुछ जगह मवेशी भी दिख जाते थे । एक दो जगहों पर रुक कर कुछ फोटोग्राफी की । हर तरफ तो एक सा मंजर था, वीरानी का । अब एहसास हो रहा था कि इन जगहों पर दिशाओं का अंदाज़ा लगा पाना कितना मुश्किल है । टीले दर टीले हम बढे जा रहे थे कि अचानक एक टीले के पार कुछ आबादी दिखाई दी । यहाँ पर रेत के बीच एक गाँव सा था और उसके आगे घंटियाली माता का मंदिर है । यहाँ पर पाकिस्तानी सेना द्वारा खंडित मूर्तियाँ भी रखी हुई हैं । कहा जाता है कि यहाँ पर पहुँच कर पाकिस्तानी सैनकों को दिखना बंद हो गया था और उन्होंने भ्रम में अपनी ही सेना पर गोलियां चला दी और आपस में लड़ कर ही एक दूसरे को मार दिया ।मंदिर के दर्शन करने के बाद यहाँ पर कुछ समय बिताया और रेत के टीलों पर कुछ फोटोग्राफी की ।


पाकिस्तानी सेना द्वारा खंडित मूर्तियाँ 
 
 
 
यहाँ से तनोत लगभग १० किलोमीटर दूर है और थोड़ी ही देर में हम वहां पहुँच गए । 
तनोत भारत के पश्चिमी छोर पर भारत पाकिस्तान सीमा से पहले एक छोटा सा स्थान है । एक राजपूत रजा तनु राव ने तनोत को अपनी राजधानी बनाया था और सन ८४७ में यहाँ तनोत माता के मंदिर की स्थापना की थी । इस स्थान के आगे असैन्य नागरिकों का जाना प्रतिबंधित है और कुछ विशेष अनुमति के बाद ही आप यहाँ से आगे भारत की आखिरी सीमा चौकी तक जा सकते हैं । यहाँ पर तनोत माता का भव्य मंदिर है जिन्हें भारत का रक्षक माना जाता है । भारत पाकिस्तान के १९६५ के युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने यहाँ पर करीब तीन हज़ार बम बरसाए परन्तु यह माता का चमत्कार था कि इनमे से कोई बम नहीं फटा । इस मंदिर के रखरखाव का पूरा प्रबंध सीमा सुरक्षा बल (बी एस एफ ) के हाथों में है । यह भारतीय सुरक्षा बलों के साथ समस्त भारतीयों की श्रद्धा का केंद्र है ।
तनोत में कुछ घर थे और बाकी सीमा सुरक्षा बल का क्षेत्र था । जैसलमेर से तनोत के लिए राज्य परिवहन की बस सेवा भी है जो प्रतिदिन सुबह तनोत से चल कर शाम को वापस तनोत पहुँच जाती है। सचमुच यह तो भव्य मंदिर था । मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही एक अनूठे रोमांच और श्रद्धा से रोम रोम भर चुका था । एक बड़े से सभाग्रह से होते हुए हम मुख्य मंदिर में पहुँच गए । माता के दर्शन कर प्रसाद लिया । अचानक नेहा ने दिखाया कि माता की मूर्ति के सम्मुख गोलियां आदि रखी हुई थी । अशोक जी ने बताया कि माता को भारत का रक्षक माना जाता है और सीमा सुरक्षा बल के जवान यह सब माता को अर्पण करते हैं । मंदिर में एक तरफ कुछ बम और गोले रखे हुए हैं जो पाकिस्तानी सेना ने इस जगह पर बरसाए थे परन्तु माता के चमत्कार से वो फटे ही नहीं । मंदिर के प्रांगण में पीर बाबा की मज़ार भी है । मंदिर से बाहर निकलते ही तनोत विजय स्तम्भ है जो भारतीय सुरक्षा बलों की वीरता और शहादत की याद दिलाता है ।
तनोत विजय स्तम्भ 
यहाँ पर कुछ समय बिताने के बाद अब हम वापस जैसलमेर जाने के लिए गाड़ी में बैठ चुके थे । अचानक मेरे मन में विचार आया और मैंने अशोक जी से लोंगेवाला के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि हम लोंगेवाला होते हुए जैसलमेर जा सकते हैं और आसानी से शाम को ५ बजे तक जैसलमेर पहुँच जायेंगे । बस अब क्या था गाड़ी झटपट लोंगेवाला की सड़क पर मुड़ गयी ।
तनोत से लोंगेवाला करीब ३८ किलोमीटर दूर है । तनोत से लोंगेवाला के मार्ग पर सचमुच थार मरुस्थल के ह्रदय में होने का अनुभव हो रहा था । चारों तरफ रेत के एक जैसे टीले और इन पर चढ़ती उतरती एकदम वीरान सड़क और जगह जगह टीलों के उपर बने बंकर - सचमुच यह है थार ।   हर समय, हर जगह, आप पर नज़र है किसी की । एक दो जगह कुछ गाँव से भी दिखे जहाँ पर एक पानी का टेंक, कुछ झोपड़ियाँ और खूब सारे मवेशी । खरामां खरामां हम चले जा रहे थे और हर टीले को पार कर फिर नयी जिज्ञासा जन्मती थी अगले टीले के उस पार की ।
तनोत से लोंगेवाला के मार्ग के कुछ दृश्य 
करीब पैंतालीस मिनट बाद हमें सामने टीले पर कुछ दिखने लगा था । अशोक जी ने बताया कि हम लोंगवाला पहुँचने वाले थे ।

लोंगेवाला में ही १९७१ के भारत पकिस्तान युद्ध की निर्णायक लड़ाई हुई थी जिसमे भारत ने पकिस्तान को चारों खाने चित्त कर दिया था ।  लोंगेवाला को पाकिस्तानी टेंकों की कब्र भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर हुए युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना की सैकड़ों गाड़ियों के साथ ३४ टेंक ध्वस्त कर दिए थे और भारत के दो सैनिक शहीद हुए थे । इस विजय के लिए ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी को वीर चक्र से सम्मानित किया गया । हिंदी फिल्म "बॉर्डर" की पटकथा लोंगेवाला के भारत पाक युद्ध पर ही आधारित है और फिल्म में दिखाया गया मंदिर तनोत माता के चमत्कार की तरफ संकेत करता है । लोंगेवाला में कुछ विजय स्तम्भ बने हुए हैं जहाँ पर भारतीय सेना के पराक्रम की गाथाएं अंकित हैं । पाकिस्तानी सेना का छोड़ा हुआ एक टेंक और एक ट्रक भी यहाँ पर रखा हुआ है । यहाँ पर कुछ देर रुकने के बाद हम वापस जैसलमेर की तरफ चल दिए । लोंगेवाला से जैसलमेर की सड़क अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छी स्थिति में थी और कुछ आगे चलने पर अब कुछ अलग सा इलाका दिखने लगा था ।
यहाँ पर बड़े बड़े फार्म बने हुए थे और खेती भी हो रही थी । अशोक जी ने बताया की कुछ जगहों पर अच्छी मिटटी भी मिल जाती है जिसका पूरा उपयोग खेती के लिए किया जाता है ।
 
अब तब भूख भी बड़े जोरों से लग चुकी थी और जैसलमेर से पहले बीच में एक जगह पर रुक कर भोजन का आनंद लिया ।  जैसलमेर से थोडा पहले ही सूर्यास्त होने लगा था और हम इस समय बड़ा बाग़ के पास पहुच गए थे । यहाँ पर जैसलमेर के राजाओं की छत्रियां बनी हुई हैं जो वास्तव में शिल्पकला का सुन्दर नमूना हैं । चूँकि हमारे पास समय की कमी थी इसलिए सड़क से ही इसे देख कर हम जैसलमेर की तरफ चल दिए ।
जैसलमेर में नेहा की एक सहेली योगिता भी थी और वो हमसे मिलने जैसलमेर किले के पास पहुँच चुकी थी । यहाँ पहुँच कर अब जैसलमेर के किले को देखने का समय तो बचा नहीं था इसलिए हम प्रसिद्द पटवा की हवेली देखने चल पड़े । पुराने जैसलमेर शहर के बीच में संकरी गलियों से होते हुए हम पटवा की हवेली पहुचे । इन रास्तों को देख कर "नन्हे जैसलमेर " फिल्मे में देखा हुआ जैसलमेर याद आ गया ।
पटवा की हवेली जैसलमेर में स्थित शिल्प कला का एक नायाब नमूना है । अगर इसके इतिहास पर नज़र डालें तो हम अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में पहुँच जाते हैं जब दो पटवा बन्धु जैसलमेर में व्यापार किया करते थे । जब उनका व्यापार जैसलमेर में फल फूल नहीं पाया तो कुछ पंडितों की राय ले कर ये लोग जैसलमेर छोड़ कर चले गए और जैसलमेर छोड़ने के बाद इन्होने व्यापार में बहुत उन्नति की । इसके कुछ समय बाद जैसलमेर रियासत के राजकोषीय घाटे की पूर्ति हेतु जैसलमेर के शासकों ने इन्हें वापस बुला लिया । जैसलमेर आने पर परिवार के बुजुर्ग गुमान चन्द पटवा ने जैसलमेर किले के पास अपने पांच पुत्रों को उपहार स्वरुप पांच आलीशान हवेलियाँ बनवा कर दी । दुर्भाग्यवश यहाँ आकर इनका व्यापार अच्छा नहीं चला और ये लोग फिर से जैसलमेर छोड़ कर चले गए । परन्तु इनकी बनायी हुई ये कोठियां जैसलमेर के लिए धरोहर बन गयी । हम जब तक यहाँ पहुंचे अँधेरा हो चुका था परन्तु रात में भी इसके शिल्प की वाह वाही किये बिना न रह सके । सचमुच पीले रंग के पत्थर पर इतनी बारीक नक्काशी की आज के समय में कल्पना भी नहीं की जा सकती । आप कुछ फोटो देख कर इस शिल्प कला का अनुमान लगायें :
 
 
 
 
 
इसके बाद कुछ देर जैसलमेर के बाजारों से होते हुए वापस किले की तलहटी की तरफ आये । यहाँ पर कुछ खरीददारी के बाद भोजन किया और योगिता से विदा लेने के बाद हम रेलवे स्टेशन की तरफ चल दिए । यहाँ से रात में जोधपुर की ट्रेन में आरक्षण था और जैसलमेर को विदा कह कर हम जोधपुर के लिए रवाना हो गए |