रविवार, 15 नवंबर 2009

तीन दिवसीय मेगा ट्रेक -- ( रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ ) --- सुखद अनुभव : भाग एक

योजना :
कम से कम १० बार ऐसा हुआ कि हरिश्चन्द्रगढ़ का ट्रेक करने का प्लान बनता और आखिरी लम्हों में पता नहीं कुछ ऐसा हो जाता कि प्लान धरा का धरा रह जाता | यहाँ तक कि ऐसा लगने लगा था कि शायद हम कभी जा पायें या नहीं | इस बार सोमवार की छुट्टी थी और ३ दिन का सप्ताहान्त मिल गया | बहुत दिनों से मन था कि २-३ दिन का ट्रेक किया जाये ताकि मुंबई के कोलाहल से दूर प्रकृति के सुखद अनुभव को लिया जाये | यह सोचकर हमने ३ दिन का रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ का ट्रेक प्लान किया | तीन दिनों तक गाँव और जंगलों में चलना था और गुफाओं में बसेरा करना था | संतोष को किसी काम की वजह से अपने घर (हैदराबाद) जाना पड़ गया तो हम ३ लोग : मयंक , सौरभ और मैं इस ट्रेक के लिए तैयार थे | साथ ही इस बार हमारे ऑफिस के ही मेनेजर साहब (अभिषेक ) भी हमारे साथ चलने के इच्छुक थे तो अब हम चार लोग शुक्रवार का इंतज़ार करने लगे |

रतनगढ़ :

सह्याद्रि पर्वत श्रंखला की सबसे ऊँची चोटियाँ इगतपुरी खण्ड में आती हैं | इसके बाद सह्याद्रि का विस्तार कर्जत से होते हुए पुणे और फिर कोंकण तक है | भन्डारधारा झील के पास स्थित रतनगढ़ ट्रेकर्स को अपने सुन्दर दृश्यों की वजह से बहुत आकर्षित करती है | यहाँ की देवी रत्नेश्वरी देवी के नाम पर इस किले का नाम रतनगढ़ पड़ा | इस किले को छत्रपति शिवाजी ने अपने कब्जे में कर लिया था और यह उनके कुछ प्रिय किलों में से एक था | इस चोटी से चारों तरफ के आकर्षक दृश्य आपके सामने होते हैं | यहाँ से सह्याद्रि की सबसे ऊँची चोटी कलसुबाई और उससे लगी हुई कुलांग-मदान-अलांग चोटियाँ भी पास ही हैं |

हरिश्चन्द्रगढ़ :

हरिश्चन्द्रगढ़ की गणना बहुत प्राचीन किलों में होती है |बहुत से पुराणों (मत्स्यपुराण , अग्निपुराण , और स्कन्दपुराण आदि) में इसका उल्लेख मिलता है | इस किले को छठी शताब्दी में कलचुरी वंश के शासनकाल में बना हुआ माना जाता है | बहुत सी गुफाएं ११वीं शताब्दी में बनी हुई मानी गई हैं | गुफाओं में भगवान विष्णु की मूर्तियाँ हैं | यहाँ के विविध निर्माण इसके बाद यहाँ विभिन्न संस्कृतियों के आगमन को दर्शाते हैं | खीरेश्वर गाँव में नागेश्वर मंदिर , हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर और केदारेश्वर गुफा में बनी अनुकृतियाँ इस किले को मध्यकालीन समय का बताती हैं | इसके बाद यह किला मुगलों के नियंत्रण में था जिसे मराठा वंश ने सन १७४७ में अपने नियंत्रण में ले लिया |
इस एतिहासिक महत्व के साथ ही यहाँ और भी जगहें बहुत प्रसिद्ध हैं : कोंकण काड़ा , तारामती चोटी, केदारेश्वर गुफा ,हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर आदि |

हमारे बस/ट्रेक का मार्ग इस प्रकार था :
मुंबई - इगतपुरी - घोटी - शेंडी गाँव - भन्डारधारा झील - (ट्रेक प्रारंभ )रतन वाड़ी गाँव - रतनगढ़- कटारबाई खिंड (दर्रा / पास )- कुमशेट गाँव - पछेती वाड़ी गाँव - पाचनै गाँव - हरिश्चन्द्रगढ़ - खीरेश्वर गाँव - खूबी फाटा (ट्रेक सम्पूर्ण )- कल्याण - मुंबई |

मुंबई से शेंडी गाँव :
इन्टरनेट पर मिली जानकारी के आधार पर हम लोगों ने पहले महानगरी एक्सप्रेस जो कि रात को १२ बजे मुंबई से चलती है से इगतपुरी निकलने का विचार बनाया | परन्तु जब में इगतपुरी से बस की समय सारिणी देख रहा था तो मुझे संगमनेर की बस का पता चला | मेरी जानकारी के अनुसार हमे इगतपुरी से शेंडी जाने के लिए पुणे की बस पकड़नी थी जो संगमनेर से हो कर जाती है | जब मुझे मुंबई से संगमनेर की बस दिखी तो हमने इसी से निकलने का प्लान बना लिया | करीब ११ बजे रात को हम खाना खाने के बाद महाराष्ट्र राज्य परिवहन के मुंबई सेंट्रल डिपो की तरफ चल पड़े | यहाँ जा कर पता चला की १२ और १ बजे संगमनेर की बसें हैं | १२ बजे वाली बस में बैठने के बाद पता चला कि ये बस तो शेंडी होकर नहीं जायेगी | यह नॉन स्टाप बस है जो नासिक से होते हुए संगमनेर जायेगी | इगतपुरी के अन्दर भी नहीं जायेगी बल्कि बाई पास से निकल जायेगी | अब किसी ने बताया कि १ बजे वाली बस इगतपुरी होकर जाती है | लेकिन १ बजे वाली बस का भी यही मार्ग था |
इस बस के कंडक्टर ने बताया कि वो हमको इगतपुरी के बाहर ही महामार्ग पर उतार देगा जहाँ से हम पुणे वाली बस पकड़ सकते हैं | यही एक मात्र विकल्प था इसलिए इसी बस में बैठ गए | इस बस का कंडक्टर ने थोडा सोचकर हमको दूसरा उपाय बताया कि हम घोटी के पास उतार सकते हैं | घोटी इगतपुरी से थोडा आगे एक छोटी सी जगह है जो पुणे इगतपुरी मार्ग पर है | चूँकि रात में पुणे वाली बस महामार्ग पर रुके या न रुके इसलिए हमने भी ये उचित समझा | १ बजे मुंबई से निकल कर हम ५ बजे घोटी के पास उतर गए | कंडक्टर ने हमको एक शार्टकट रास्ता बता दिया था परन्तु अँधेरे और नयी जगह की वजह से हम ज्यादा समझ नहीं पाए | यहाँ उतर कर थोडा पीछे वापस आये और घोटी के लिए सड़क से ही चल पड़े | १.५ किलोमीटर करीब चले होंगे और हम घोटी में थे और समय ५:४५ हो चुका था | पुणे की पहली बस इगतपुरी से ५:३० पर निकलती है जो थोडी ही देर में आ गई | यहाँ से ६ बजे हमने शेंडी के लिए यात्रा शुरू की और करीब ७:३० पर हम शेंडी गाँव पहुँच गए |

पहला दिन : शेंडी गाँव से प्रस्थान :
शेंडी गाँव में चाय पीने के बाद पूछने पर पता चला की यहाँ से नाव या जीप से रतन वाड़ी तक पहुंचा जा सकता है | सुबह सुबह सबका मन झील से हो कर जाने का था इसलिए एक नाव वाले से बात की तो उसने बताया की उसको १० लोग चाहिए तब वो चलेगा | लेकिन हम तो ४ ही थे | जीप भी पूरी बुकिंग पर ही जा रही थी | उसने हमको झील के किनारे इन्तेज़ार करने को बोला और कहा की और लोग मिलेंगे तो वो ले कर आएगा | नाव का किराया मात्र ६० रूपये प्रति व्यक्ति है |

भन्डारधारा झील:

यहाँ से आधा किलोमीटर दूर है भन्डारधारा झील | प्रवरा नदी पर सन १९१० में बना हुआ यह बाँध, विल्सन बाँध भारत के कुछ सबसे पुराने बांधों में से एक है | भन्डारधारा झील को ऑर्थर लेक भी कहा जाता है | एकदम साफ़ पानी की इस विशालकाय झील की परिधि करीबन ४५ किलोमीटर है | साथ ही यहाँ पर स्थित रांधा झरने को भारत का तीसरा सबसे बड़ा झरना मान जाता है |इस झील के चारों तरफ रतनगढ़ , कलसुबाई , कुलांग-मदान-अलांग , अजूबा और घनचक्कर आदि चोटियों का दृश्य बड़ा ही सुन्दर होता है | हमे इस झील को पार कर रतन वाड़ी पहुँचने के लिए झील में नाव से १० किलोमीटर दूरी तय करनी थी |

बहुत देर तक झील के किनारे बैठे रहे और फोटोग्राफी करते रहे | लेकिन अब तक वो नाव वाला नहीं आया था | आखिर में खुद जा कर उसको खोजा तो पता चला कि उसको कोई और सवारी नहीं मिली | आखिर में ५०० रूपये में बात तय हुई और हम चारों चल पड़े नावकी तरफ |

रतन वाड़ी :
नाव से यह १० किलोमीटर की दूरी तय करना बड़ा ही सुकून भरा अनुभव था | सुबह के सूरज की किरणे , नीला स्वच्छ पानी और वो ताज़ी हवाएं किसी के भी मन को आह्लादित करने के लिए बहुत हैं | नाव वाला बता भी रहा था कि चारों तरफ कौन कौन सी चोटियाँ दिख रही हैं | लगभग १ घंटे में हम लोग झील के उस पार पहुँच गए | यहाँ पर छोटा सा गाँव था (शायद रतन वाड़ी का एक हिस्सा ) और यहाँ से हम आगे बढ़ चले | थोडी देर चलने के बाद ही हमको मुख्य रतन वाड़ी गाँव दिखने लगा | अभी तक हम इस विशाल झील के किनारे किनारे ही चल रहे थे | ११ बज चुका था और सामने रतनगढ़ दिख रहा था | यहाँ पर थोडा रूककर फिर आगे बढ़ने की सोची | बैग रखने के बाद इन सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया और फोटोग्राफी की | इतनी देर तक इतने साफ़ पानी की झील के करीब हों और झील में न घुसें , ऐसा कैसे हो सकता है | एक एक कर के सब झील में घुस गए और फिर ठंडे पानी में अठखेलियों का दौर शुरू हो गया |

अमृतेश्वर मंदिर :

बहुत देर तक यहाँ नहाने के बाद अब सब लोग तारो ताज़ा हो चुके थे और गाँव की तरफ बढे | गाँव के किनारे पर पहुत पुराना अमृतेश्वर महादेव का मंदिर है | मंदिर की दीवारों पर पत्थरों पर सुन्दर शिल्प कला ने सबका मन अभिभूत कर दिया | यहाँ पर शिवलिंग जमीन से नीचे है जो पानी में डूबा हुआ था | अन्दर थोडा अँधेरा सा था और ३-४ सीढियां उतरने के बाद और गहराई का अंदाजा नहीं था तो थोड़े से दिख रहे शिवलिंग के दर्शन किये और वापस आ गए | मंदिर के पास ही एक चाय की दुकान थी यहाँ पर स्वादिष्ट कांदा पोहा खाया , चाय पी और अब ट्रेक का प्रारंभ करना था | यहाँ से रतनगढ़ का ट्रेक कुछ ३-४ घंटे का है | १२ बज चुका था और हमारी अगली मंजिल थी रतनगढ़ |

यहाँ से एक छोटी सी नदी के किनारे किनारे थोडी दूर तक चलना था | लेकिन अब समझ नहीं आ रहा था की नदी के किस तरफ से जाना है | दोनों तरफ रास्ते थे | थोडी दूर चल कर एक घर दिखा | यहाँ से सही रास्ता पता चल गया | दरअसल हमको नदी को पार कर के फिर दायीं तरफ चलते जाना था | थोडा आगे चलने पर गाँव का एक लड़का मिल गया जो जंगल में गाय चराने आया था | उसके साथ थोडा उपर चढ़ने के बाद सीधा रास्ता मिल गया था | अब जंगलों से होते हुए चढाई वाला रास्ता था | करीब दो घंटे चलने के बाद एक जगह फाटा (जहाँ से दो रास्ते हो जाते हैं ) मिल गया | हमारे ज्ञान के मुताबिक ये दूसरा रास्ता हरिश्चन्द्रगढ़ जाता था जिसे हमको अगले दिन पकड़ना था | यहाँ पर कुछ और लोग मिले जो गाँव से किसी गाइड को ले कर आ रहे थे | उसने भी बता दिया कि यह हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए रास्ता था | हम सीधा उपर चल पड़े |

रतनगढ़ के लिए सीढियां :

करीब १ घंटा और चढ़ने के बाद हम रतन गढ़ के ठीक नीचे थे | यहाँ से सीधी चट्टान थी और इस पर लोहे ही सीढियां लगी हुई थी क्योंकि ऐसे चट्टान पर चढ़ना असंभव था | यहाँ अभिषेक की हालत ख़राब हो गई | इन सीढियों पर आधे के बाद रेलिंग नहीं थी और जो थी भी वो हिल रही थी | करीबन ३०-३० सीढियां दो जगह थी और उसके बीच का रास्ता चट्टान का खतरनाक रास्ता था | खैर अभिषेक को धीरे धीरे उपर चढाया और मैं दोबारा नीचे उतर कर उसका बैग ले के उपर गया | इसके बाद दूसरी सीढ़ी थी जो धीरे धीरे पार कर ली | इसके उपर का रास्ता चट्टान में बने छोटे छोटे खांचों पर चढ़ना था | थोडा सा चढ़ कर एक दरवाजा मिल गया | यहाँ से दायीं तरफ जा कर गुफाएं मिल जाती हैं |
हमारे पीछे पीछे गाइड भी बाकी लोगों को ले कर आ गया | पहली गुफा छोटी सी थी और इसमें मंदिर भी था | गाइड के कहने के मुताबिक हम चार लोग इसमें रुक गए और दूसरे लोग अगली बड़ी गुफा में |
अब रात में रुकने के लिए लकडी का इन्तेजाम करना था | हमारा मन था की रात भर आग जला के बैठेंगे क्योंकि छोटी पर रात में तेज़ हवाएं चलेंगी और ठंडा हो जायेगा | उनके साथ आया गाइड कहीं से थोडी लकडियाँ ले आया और हमको भी दे दी |
जैसा कि लोगों ने बताया था रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ का ट्रेक करीब १२ घंटे का है | सुबह जल्दी निकल कर शाम को ही पहुंचा जा सकता है और अगर रास्ता भटक गए तो फिर मुश्किल हो जायेगी | सामने के जंगल देख कर लग भी रहा था कि रास्ता भटकने की सम्भावना बहुत है | हमने इस गाइड से बात की तो उसने बताया की वो चलेगा परन्तु ७०० रूपये
लेगा | हमको थोडा ज्यादा लगा और हमारी बात नहीं बन पायी | फिर हमने अकेले ही जाने का निर्णय लिया | अब लकडी जलाई गई और गरमागरम चाय पीने के बाद समय था रतनगढ़ घूमने का |

रतनगढ़ में :
चाय पी कर मैं, सौरभ और मयंक उपर की तरफ चल पड़े | चूँकि बंदरों का भय था इसलिए दो दो करके जाना था | उपर बरसात के पानी को इकठ्ठा करने की टंकियां बनी हुई थी | यहाँ से पानी भर लिया जिससे रात में दुबारा न आना पड़े | रतनगढ़ में किले के कुछ अवशेष अभी भी बचे हुए हैं | उपर रास्ता बिलकुल चट्टान के किनारे पर है और सूखी हुई घास में कुछ खास नहीं दिख रहा था | संभल संभल कर ही चलना था | कहीं कुछ लकडियाँ दिख रही थी तो वो उठा ले रहे थे | बहुत दूर चलने के बाद अब हमें लगा कि आगे कुछ नहीं होगा इसलिए वापस आ गए |
गुफा में वापस आ कर कुछ देर बैठे और अब सूर्यास्त का समय होने लगा था | अब सौरभ गुफा में रुका और हम तीनो उपर की तरफ चल दिए | एक जगह बैठ कर सूर्यास्त के सुन्दर दृश्यों का आनंद लिया |
जब इतनी ऊंचाई पर इतनी मेहनत से चढ़े हों तो फिर सामने के दृश्यों की सुन्दरता कुछ और ही लगती है | इतनी ऊंचाई से सामने के सुन्दर दृश्य और डूबता सूरज | अब पहाडी की दूसरी तरफ चल पड़े | अँधेरा होने लगा था लेकिन दूसरी तरफ कल्याण दरवाज़े तक जाना था | ये रास्ता भी बिलकुल किनारे पर था और हम गुफाओं के ठीक उपर चल रहे थे | अभिषेक के कहने पर हम लोगों ने वापस जाने का निर्णय लिया और गुफा में आ गए | गुफा के बाहर ही आग जलाई और अब खाना बनाने का कार्यक्रम शुरू करना था | पुलाव बनाने का सामान ले कर ही आये थे | मयंक शकरकंद भी ले कर आ गया था | कई सालों बाद आग में भूनी हुई शकरकंद खा कर तो सब तृप्त हो गए | करीब १० बजे स्वादिष्ट पुलाव खाया| अब बाहर ठंडा होने लगा था इसलिए गुफा के अन्दर ही आग जला ली | अब गुफा के अन्दर सोने का प्रबंध किया और अगले दिन के रोमांच और भय की कल्पना के साथ हंसते हंसाते सबको नींद आ गयी |

नोट : चूँकि एक साथ बहुत लम्बा वृत्तान्त हो जाएगा इसलिए अगले दो दिनों का वृत्तान्त अगले भाग में लिखूंगा |

1 टिप्पणी:

पढ़ ही डाला है आपने, तो जरा अपने विचार तो बताते जाइये .....