रविवार, 22 नवंबर 2009

तीन दिवसीय मेगा ट्रेक -- ( रतनगढ़ से हरिश्चन्द्रगढ़ ) : भाग तीन |

हरिश्चन्द्रगढ़ मानचित्र :

Data on Harishchandragad was collected during hike of December 28-31, 2003, by Dr. Navin Verma, Dr.Yuvaraj Chavan (Y.B.) and Vitthal Awari (member of YZ Trekkers). The Balekilla route was aided by Dattu Damu Bharmal (of village achnai). Map created by Mahesh Chengalva.
तीसरा दिन :

कुमशेट गाँव में सुहानी सुबह :
कुमशेट गाँव में ये रात बिताना भी अच्छा अनुभव था | आधी रात के बाद ठंडी हवाओं ने नींद में खलल डालना शुरू कर दिया था | फिर भी दिन भर की थकान थी तो सो ही लिए | सुबह तडके ही गाँव में मुर्गों की बांक और दूसरी आवाजों से नींद खुली | सचमुच ये वातावरण बहुत दिनों बाद देखा था सबने | ६ बजे करीब हम सब उठ गए थे | इसके बाद चाय बनाई गई और चाय पीने के बाद आज के ट्रेक की प्लानिंग | इतने में बाड़ू भी आ गए | यहाँ से बिस्तर समेटा तो सौरभ चिल्लाया | हम जहाँ सोये हुए थे उसके नीचे बिच्छू थे | चलो अच्छा हुआ कि किसी को काट नहीं पाए |
हमने सुना था कि हरिश्चन्द्रगढ़ के ट्रेक में एक चट्टान का रास्ता थोडा दुर्गम है | अभिषेक का अचानक मन बदल गया | इस चट्टान के भय की वजह से वो वापस जाने की सोचने लगा | लेकिन अब तो देर हो चुकी थी और बस जा चुकी थी | थोड़ी हिम्मत बढ़ने के बाद वो भी तैयार हो गया |

आखिरी दिन की प्लानिंग :
चूँकि पहले दिन हम रास्ते ही भटकते रह गए और हमारा सारा समय व्यर्थ ही नष्ट हो गया था इसलिए उसकी पूर्ति आज होनी थी | आज हमें कोई अंदाज़ा नहीं था की कितना चलना पड़ेगा परन्तु बाड़ू ने बताया की सब सही रहा तो हम करीबन ४-५ घंटे में हरिश्चन्द्रगढ़ में होंगे | हम सबको इसकी उम्मीद थोड़ी कम ही लग रही थी क्युकी अक्सर गाँव के लोगों और हमारे पैदल चलने की गति में बहुत अंतर रह जाता है | पर किसी तरह भी जाना तो था ही और अगले दिन ऑफिस भी जाना था | आज रात में ही मुंबई पहुंचना था |

कुमशेट गाँव से पछेती वाड़ी गाँव :

करीबन ८ बजे हम तैयार थे और बाड़ू की अगुवाई में हम लोग अगले गाँव पछेती वाड़ी के लिए चल पड़े |
गाँव से आगे थोड़ी देर समतल रास्ते पर ही चलना था और इसके बाद मूला नदी को पार करना था | मूला नदी से थोडा पहले ही जंगल शुरू हो जाता है | इस जंगल में नीचे उतर कर मूला नदी को पार कर फिर उपर चढ़ना है और इसके बाद पछेती वाड़ी गाँव आ जाता है |
मूला नदी को पार करने के बाद इस सुरम्य वातावरण ने सबका मन मोह लिया | कुछ देर सब यहाँ बैठ गए और जंगल के बीच नदी के इस शांत प्रवाह में कुछ खो से गए | यहाँ बाड़ू ने बताया कि इन जंगलों में बहुत सारे जानवर हैं | यह जंगल कलसुबाई-हरिश्चन्द्रगढ़ अभयारण्य के अन्दर आता है | बाघ तो अक्सर गाँव कि तरफ भी आ जाते हैं | अच्छा हुआ कि हम रात में गाँव में ही रुक गए |
इसके बाद उपर चढ़ना था | यहाँ से पछेती वाड़ी ज्यादा दूर नहीं था | उपर जाने के बाद गाँव से ठीक पहले एक जगह विराम लिया | यहाँ से सामने की चोटियों का बहुत ही सुन्दर दृश्य दिख रहा था |

पछेती वाड़ी गाँव और बाड़ू को अलविदा :
बरसात के कुछ दिन बाद ही इन पहाड़ों के उपर पानी की कमी हो जाती है | बाड़ू ने बताया की यहाँ पर उगने वाली फसलें भी अलग हैं | खेतों में कुछ उगाया हुआ था जो मयंक और मुझे उत्तराखंड में उगने वाले "मंडुए " जैसा ही लगा | इसके बाद पछेती वाड़ी आ गया | ये छोटा सा गाँव था | इसके आगे थोड़ी देर एक कच्ची सड़क पर ही चलना था | बाड़ू के इस आतिथ्य और स्नेह ने हम सबका दिल जीत लिया था | बाड़ू ने जाते समय फिर से गाँव में आने का आमंत्रण भी दिया | कुमशेट गाँव के पास एक "अजूबा" नाम की बहुत ऊँची छोटी है | यहाँ पर किला और मंदिर है | इसके पास ही संत वाल्मीकि की समाधि भी है | बाड़ू ने बताया की हम शाम की गाड़ी से गाँव तक आ सकते हैं | गाँव में रात्रि विश्राम कर के हम अगली सुबह वहां जा कर आ सकते हैं | अजूबा के उपर से मुंबई का भी बड़ा सुन्दर दृश्य दिखता है | अब १० बज चुका था और हमारी मंजिल अब भी दूर थी | बाड़ू के निमंत्रण को बहुत जल्द स्वीकार करने की बात कह कर बाड़ू से विदा ली और हम अगले गाँव पाचनै की तरफ बढ़ चले |

पछेती वाड़ी से पाचनै गाँव की तरफ :
बाड़ू ने हमें रास्ता दिखा दिया था साथ की हरिश्चन्द्रगढ़ की दिशा भी | अब रास्ता आसान था परन्तु सूरज चढ़ने लगा था | थोड़ी दूर सड़क पर ही चलते रहे और एक जगह पानी की धारा मिली तो विश्राम लिया और पानी भर लिया |
यहाँ से पाचनै गाँव तक बिना विराम लिए चलते रहे | बीच में कहीं एक शोर्ट कट भी पड़ता था परन्तु सड़क से जाना आसान होगा ये सोचकर हमने सड़क का रास्ता ही लिया | करीबन १२ बजे हम लोग पाचनै गाँव के पास पहुँच गए | गाँव से ठीक पहले ही एक रास्ता हरिश्चन्द्रगढ़ के लिए उपर जा रहा था | हम यहीं रुक गए | चूँकि अब तक कुछ भी नहीं खाया था तो भूख भी लगने लगी थी |

पाचनै गाँव से हरिश्चन्द्रगढ़ की ओर :
दूर खेत पर एक महिला काम करती दिखी तो मैंने आवाज़ लगा के पूछा "मौशी ! गाव ला चहा ची दुकान आहे का ? " मौशी ने बताया कि गाँव में कोई दुकान नहीं है | हमारी चाय पीने की उम्मीदों पर भी विराम लग चुका था | यहाँ १५ मिनट विश्राम किया और १२:१५ पर हमने चढ़ाई शुरू कर दी |



थोडा आगे जाने पर एक दो लोग मिले जो खेत में काम कर रहे थे | इन्होने बताया कि उपर खाने का छोटा सा ढाबा है और करीबन २ घंटे में हम उपर पहुँच जायेंगे | हमें आगे का रास्ता जल्दी तय करना था लेकिन ये चढ़ाई बहुत कठिन थी | करीबन १ घंटा चलने के बाद हम एक बहुत ही सुन्दर जगह पर पहुँच गए | एक विशाल चट्टान की तलहटी में संकरा सा रास्ता था | इसकी तलहटी में छोटी सी गुफाएं भी थी जहाँ आप रुक सकते हैं | यहाँ से सामने के दूर दूर तक फैले दृश्य देख कर थकान कुछ कम हुई | थोड़ी फोटोग्राफी करने के बाद आगे बढ़ गए | अब थोड़ी देर तक चढ़ाई ज्यादा नहीं थी | कुछ लड़के नीचे आ रहे थे जिन्होंने बताया कि अब हमको १ घंटे से ज्यादा नहीं लगेगा | लेकिन इसके साथ इन्होंने एक और बात बताई जिससे सब थोड़े निराश से हो गए | उपर कोई दुकान नहीं थी | शायद सप्ताहांत पर ही वहां खाने को कुछ मिलता होगा और आज सोमवार था |

फिर भटके रास्ता :
अब क्या किया जा सकता था | जाना तो था ही, बढ़ चले आगे | थोडा आगे जाने पर एक बड़ा सा पानी का बरसाती नाला था | बड़ी सी चट्टान पर साफ़ पानी तेज़ी से बह रहा था | पानी के प्रवाह से बीच बीच में चट्टान में ही बड़े बड़े गड्ढे बन गए थे जिन्होंने तालाब का आकर ले लिया था | ये पानी इतना शीतल था कि यहाँ हाथ मुह धोने के बाद तो सारी थकान काफूर हो गई |
लेकिन यहाँ पर हम एक गलती कर बैठे | यदि कोई इस रास्ते से जा रहा है तो ध्यान रहे कि इस पानी कि धारा को पार नहीं करना है | यहाँ पर रास्ता नहीं दिखता लेकिन इसके किनारे पर ही थोडा उपर जा कर रास्ता मिल जाता है | हम इसको पार कर के सामने दिख रहे रास्ते पर चल पड़े और करीबनआधा घंटा नष्ट कर वापस यहाँ पहुंचे |
इसके आगे थोड़ी कठिन चढ़ाई थी और हमको लग रहा था कि यही आखिरी चढ़ाई होगी | अब सब थक के चूर हो चुके थे लेकिन चढ़ते ही जाना था | सौरभ सबसे आगे चल रहा था और हरिश्चन्द्रगढ़ से ठीक पहले ३-४ बार ऐसा हुआ कि लगता बस इसके उपर और नहीं होगा लेकिन उपर जा के फिर चढ़ाई ही दिखती | धीरे धीरे चलते हुए आखिरकार सौरभ को मंदिर दिख गया | यह मंदिर चोटी पर नहीं है और थोड़े गहरे जगह पर बना हुआ है | इसके आस पास बहुत सारी गुफाएं हैं जिसे हरिश्चन्द्रगढ़ मंदिर संकुल के रूप में देखा जा सकता है |चारों तरफ छोटे छोटे मंदिर भी हैं |

हरिश्चन्द्रगढ़ मंदिर संकुल और भूखे ट्रेकर्स :

अब हम मंदिर से २०० मीटर दूर थे और जल्दी से हम इस मंदिर संकुल के पास पहुँच गए | यहाँ पर दो छोटे से मंदिर थे | अब बिना कुछ सोचे सबने बैग निकल दिए और बैठ गए | सौरभ कैमरा ले कर फोटोग्राफी करने लगा | मयंक को याद आया कि चाय के सामान में चीनी बची हुई है | भूख से सब बेहाल हो चुके थे और चाय के लिए दूध पावडर जो ले कर आये थे ख़त्म हो चुका था | बची हुई चीनी निकल कर ऐसे ही खा ली और पानी पी लिया | मुंह में कुछ जाने के इस आनंद को एक भूखा ही समझ सकता है | अचानक सौरभ को याद आया कि हमारे पास जैम भी है | इसे मैं ब्रेड के साथ खाने के लिए ले कर आ गया था लेकिन ब्रेड लाना भूल गए थे | अरे ये क्या ! जैम की छोटी सी बोतल टूट चुकी थी | ये अतिशयोक्ति नहीं है की हमने फिर भी धीरे धीरे कांच के टुकड़ों को अलग किया और जितना खा सकते थे खा लिया | ये कम नहीं था कि मयंक के मुँह से कांच के टुकड़े चबाने की आवाजें भी आ रही थी | वास्तव में इस समय ये किसी अमृत से कम नहीं था |

हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर :

अब यहाँ से आगे बढे और मुख्य मंदिर में पहुँच गए | करीब ३ बज चुका था | हरिश्चंद्रेश्वर मंदिर के दर्शन किये और वापस बाहर आ कर बैठ गए | तभी यहाँ एक आदमी दिखा | इससे थोड़ी बात करने पर पता चला कि सप्ताहान्त पर ही यहाँ खाने को मिल पाता है| हमारी भूखी दशा देख कर उसे याद आया कि उसके पास दूध था | उसने हमसे पूछा कि अगर चाहें तो हम दूध ले सकते थे | ३० रूपये में हमने उससे दूध ले लिया | झट से सबने थोडा थोडा दूध पिया और अब वापसी की तैयारी करने लगे | यहाँ का मुख्य आकर्षण कोंकण काड़ा है लेकिन हमारे पास समय की कमी थी| साथ ही हम वो चट्टान के दुर्गम रास्ते को अँधेरा होने से पहले पार कर लेना चाहते थे इसलिए हमने अगली बार आ कर कोंकण काड़ा जाने का निर्णय लिया और ट्रेक को यहीं ख़त्म कर वापस जाने की सोची |
इतने में ही उस आदमी ने बताया की मंदिर के ठीक नीचे केदारेश्वर गुफा है | हमें भी ध्यान नहीं था कि यहाँ भी जाना था | जल्दी से मैं और सौरभ इस तरफ चल दिए |

केदारेश्वर गुफा :

केदारेश्वर गुफा एक बड़ी सी गुफा है और इसमें पूरे साल पानी भरा रहता है | इसके मध्य में एक विशाल शिवलिंग बना हुआ है | ये सब एक ही चट्टान में उकेरे हुए हैं | शिवलिंग के उपर कुछ छत्र /मंदिर सा बना हुआ है और चारों तरफ चार स्तम्भ | इनमें से २ स्तम्भ टूट चुके हैं | उसने बोला कि हम अन्दर जा कर शिवलिंग के दर्शन कर सकते हैं | बस अब क्या था ! मैं और सौरभ घुस पड़े पानी में | और एक दम से कंपकंपी छूट गयी | ये पानी इतना ठंडा होगा ये कल्पना भी नहीं की थी | अन्दर जा कर शिवलिंग के दर्शन किये | अब तक अभिषेक भी आ चुका था और वो भी पानी में घुस गया | मयंक इतना थक चुका था कि वो उपर ही रहा और उसने आने से मना कर दिया |

हरिश्चन्द्रगढ़ से वापसी :
यहाँ से वापस जा कर तुरंत कपडे बदले और हम तैयार हो गए वापसी के लिए | इस कुण्ड में एक डुबकी ने मानो सारी थकान गायब कर दी थी | उन सज्जन ने हमको तोलार खिंड कि तरफ का रास्ता दिखाया और ३:३० पर हम चल पड़े |
यहाँ से रास्ता ज्यादा कठिन नहीं था और छोटी छोटी पहाड़ियों के शिखरों पर उतरना चढ़ना था | अब सब तेज़ी से चल रहे थे क्योंकि चट्टान के रास्ते का भय सबको ही था | अभिषेक हम सब में सबसे ज्यादा डरा हुआ था |

तोलार खिंड से पहले चट्टान का दुर्गम रास्ता : एक धोखा
एक घंटे में हम तोलार खिंड के उपर थे | यहाँ से सामने खीरेश्वर गाँव और बड़े से बंद के सुन्दर दृश्य दिख रहे थे | थोड़ी देर इन सब दृश्यों का आनंद लिया और फिर जल्दी से नीचे उतरने लगे | लेकिन ये रास्ता तो इतना मुश्किल नहीं था जितना हमने सुना था | बड़े आराम से हँसते हँसाते हम नीचे उतर रहे थे | बरसात के समय ये रास्ता थोडा मुश्किल है क्योंकि चट्टानों पर फिसलन हो जाती होगी | लेकिन सूखे मौसम में बिलकुल भी डरने की बात नहीं है | बीच बीच में अलग अलग तरह से फोटो भी ले रहे थे की कुछ तो डरावना लगे लेकिन सब खुश थे कि ये तो आसान था | साथ ही इन्टरनेट कि जानकारियों को कोस भी रहे थे | अगर इतना हौव्वा नहीं बनाया होता तो हम कोंकण काड़ा भी देख के आ गए होते | आधे घंटे में हमने ये पार कर लिया और हम ५ बजे तोलार खिंड में थे |

तोलार खिंड से खीरेश्वर गाँव:
यहाँ से आगे जंगल के रास्ते पर उतरना था | उपर से देखने पर खीरेश्वर गाँव पास ही लग रहा था परन्तु यहाँ से बहुत समय लगा | करीब ६ बजे हम इस जंगल से बाहर निकल पाए | यहाँ एक घर था और चाय की दुकान भी | यहाँ भी खाने के लिए कुछ नहीं मिला | दुकान वाले ने बताया की यहाँ पर ३ महीने से फिल्म "रावण " की शूटिंग चल रही थी और वो उसमें काम कर रहा था | इसलिए सारा सामान ख़त्म हो गया है | उसने अपने मोबाइल फोन में फिल्म की शूटिंग की फोटो भी दिखाई | यहाँ चाय पीने के बाद हम गाँव की तरफ चल पड़े | हमे गाँव में नहीं जाना था और गाँव से पहले ही बाँध के किनारे किनारे महा मार्ग की तरफ जाना था | गाँव के पास आते आते ७ बज चुका था | खीरेश्वर बांध बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ था | गाँव से इस बांध के किनारे किनारे कच्ची सड़क पर ५ किलोमीटर चलने के बाद महा मार्ग था |

मुंबई नांदेड़ महामार्ग : वापसी मुंबई को
अब तक हमारे पैर "वाकिंग मशीन " की तरह हो चुके थे | यकीन मानिये हमको पैर उठा कर चलने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ रही थी | शायद वो सुन्न हो चुके थे और खुद बखुद चले जा रहे थे | करीबन ८ बजे हम महा मार्ग पर थे |
अब सबके चेहरे पर बड़ा सा प्रश्न चिन्ह सा दिख रहा था | अब क्या ? यहाँ पर कोई गाड़ी रुकने के आसार नहीं दिख रहे थे | यहाँ से थोड़ी दूर पर थोड़े घर थे और मयंक उस तरफ पता करने चला गया | उसने बताया की महा मार्ग पर थोडा दूर जा कर ढाबे हैं और वहां बस रुक सकती है | अब क्या था चल पड़े | करीब १ किलोमीटर चलने के बाद एक ढाबा मिला | यहाँ चाय पी और इसने बताया कि राज्य परिवहन की बस शायद ही यहाँ पर रुके | चूँकि ये आदिवासी इलाका था और पास में माल्शेज़ घाट के घने जंगल भी थे | इसलिए यहाँ रात में कोई गाडी आसानी सेरूकती नहीं | चाय पीने के बाद हम सड़क पर आ कर खड़े हो गए | करीब ९ बज चुका था और मुंबई अभी दूर था | यहाँ से करीबन १०० किलोमीटर दूर कल्याण था और वहां से २ घंटे हमे बान्द्रा जाने में लगते | सबसे बड़ी बाद थी की अगले दिन सुबह ऑफिस जाना था |

ट्रक की यात्रा मुंबई तक :
९:३० हो चुका था और कोई बस नहीं रुकी थी | इतने में सौरभ के हाथ देने पर एक मिनी ट्रक रुक गया | इसने बताया की ये मुंबई तक जायेगा | हांलांकि इसमें हम चारों के बैठने की जगह नहीं थी पर दूसरा विकल्प भी नहीं था | मैं सबसे हल्का ही हूँ इसलिए सबके बैठने के बाद मैं किसी तरह सौरभ के पैरों पर बैठ गया और ट्रक चल पड़ा | अब सफ़र अच्छा था और महा मार्ग पर बिना रुके सीधे मुंबई तक जाना था | ट्रक ड्राईवर ने बताया कि यहाँ पर अक्सर
आदिवासी लोग प्राइवेट गाड़ियों को लूट लेते हैं | इसलिए रात में कार ले कर लोग इस तरफ नहीं आते | इस ट्रक का शीशा भी टूटा हुआ था और उसने बताया कि कुछ दिन पहले यहाँ पर उसके ट्रक पर भी लोगों ने पत्थर मार कर शीशा तोड़ दिया है | खैर उसके ट्रक में दूध था और हमारे पास कुछ भी नहीं |

पहुंचे मुंबई : अविस्मर्णीय ट्रेक की सकुशल समाप्ति
रास्ते में एक जगह चाय पी और करीब १२ बजे हम मुंबई में थे | ट्रक ने हमे मलाड में छोड़ा | यहाँ से अभिषेक अपने घर चला गया | हम लोगों ने कल रात से कुछ नहीं खाया था इसलिए सबसे पहला काम था खाना खाना | एक जगह खाना खाया और करीबन २ बजे रात में हम बान्द्रा पहुँच गए | बेहद थका देने वाले , रोमांचक और अविस्मर्णीय ट्रेक का सुखद अंत हुआ और अगले दिन सुबह ९ बजे हम सब ऑफिस भी पहुँच गए |

7 टिप्‍पणियां:

  1. abe main tha cdac main tab to daru pike pade rahte the. tab chal padte to main bhi duniya dekh leta. anyway good going.
    enjoy and explore life :)
    Ravi Dalal

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  2. aaj padhh payaa aapko, aour ye bahut hi rochak lagaa ki aapki vidhao me ghumana ati priya he.., ghumantu hona jeevan ko samajhane ke sabase kareeb honaa hota he.., javaani me..yaa yu kanhu apne college zamane me mujhe yah shouk tha..dheere dheere..noukari va paristhiyo ki vajah se chhootataa chalaa gayaa, kintu dekhiye..usi shouk ki vajah ne jeevan ke roopo ko bikher kar ab apne shabdo me samaahit kar diyaa he../ padhhne-likhane kaa shouk nahi vo to meri rago me samaayaa he. so itminaan se aap jeso ko khoob padhhtaa hu..seekhtaa hu aour thodaa bahut likhta hu.
    achhi lagi aapki post, sirf post hi nahi aapka shouk bhi../

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  3. बहुत सुन्दर जानकारी दी आपने
    इस यात्रा वृतांत के द्वारा
    बहुत बहुत आभार

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  4. इतने सुरम्य चित्रों के माध्यम से आपने यात्रा वृतांत का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया हैं कि पढ़ते-पढ़ते लग रहा था हम स्वयं पहाड़ों की सुन्दर वादियों में सुकूं से घूम रहें हैं. आगे भी पोस्ट करते रहिएगा.....
    आभार
    हार्दिक शुभकामनाएं ..

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पढ़ ही डाला है आपने, तो जरा अपने विचार तो बताते जाइये .....