मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मोहिम किल्ले कर्नाला ....

पिछले कुछ दिनों से ना जाने कैसी व्यस्तता थी की प्लान बनाने के बाद भी कहीं घूम ही नही पाया | आखिर कार सौरभ और मैं दोनों खुद इतने परेशान हो गये कि एक कर्नाला किले के छोटे से ट्रेक का प्लान बना और तय हुआ कि कुछ भी हो इस सप्ताहान्त पर घर पे रुकना ही नही है | सुहावने मौसम का साथ था तो यह सप्ताहान्त एक बेहद खूबसूरत ट्रेक में बीत गया |

कर्नाला किला :
कर्नाला किला , मुंबई के बहुत करीब , रायगढ़ जिले में एक पहाडी के उपर बना हुआ है | इस पहाडी का चिमनी जैसा शिखर मुंबई पुणे और मुंबई गोवा महामार्ग से ही दिखता है | यह किला कर्नाला पक्षी अभयारण्य कि सीमा के अन्दर है तो किले के ट्रेक के साथ जंगल में तरह तरह के पक्षियों को भी देखा जा सकता है | यह किला सुरक्षा की दृष्टि के बहुत महत्वपूर्ण किलों में माना जाता था | कोंकण के समुद्री किनारे से महाराष्ट्र के भीतरी हिस्सों (विदर्भ आदि ) के लिए जाने वाले भोर घाट के मुख्य व्यापारिक मार्ग पर नियंत्रण रखने के लिया यह किला बहुत महत्वपूर्ण था | किले पर नियंत्रण के लिए हुए युद्धों का इतिहास इसके महत्व को दिखाता है |

संक्षिप्त इतिहास :
यद्यपि किले के निर्माण की तिथि के बारे में इतिहासकारों में मतभेद देखा गया है परन्तु इस किले को १२०० ई० से पहले का माना जाता है | १२४८ ई० से १३१८ ई० तक यह किला देवगिरि के यादव वंश और १३१८ ई० से १३४७ ई० तक तुगलक वंश के अधिपत्य में था | कर्नाला उत्तरी कोंकण जिलों की राजधानी हुआ करता था | बाद में यह किला गुजरात राज्य में आ गया जिसे १५४० ई० में अहमदनगर के निजाम शाह ने जीत लिया | बाद में वसई ( बेसेसीन ) के पुर्तगाल शाशकों ने इसे जीत लिया और गुजरात की सल्तनत को दे दिया |
छत्रपति शिवाजी ने १६७० ई० में इसे पुर्तगालियों से जीत लिया और उनकी मृत्यु के बाद १६८० में यह किला औरंगजेब के अधीन हो गया | १७४० ई० में इसे फिर से पुणे के पेशवा शाशकों ने जीत लिया और १८१८ ई० में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे जीत लिया |

वसई से कर्नाला :
पिछले कुछ दिनों से हमने अपना रहने का ठिकाना मुंबई से थोडा और दूर वसई में कर लिया है | यहाँ से पनवेल के लिए सवारी गाडी मिल जाती है और सुबह ७ बजे सौरभ और मैं इस पर सवार हो लिए | वसई से निकले हुए ५ ही मिनट हुए होंगे कि ट्रेन के बाहर के दृश्य देख कर लगने लगा कि हम कहीं मुंबई से बहुत दूर निकल आये हैं | सह्याद्रि की हरी भरी पर्वत श्रंखलायें , उनके बीच बसे गाँव और खेत , जगह जगह पानी के तालाब और ट्रेन का सफ़र | वास्तव में यात्रा की शुरुवात ही मनमोहक थी | ट्रेन वसई से भिवंडी होते हुए पनवेल पहुचती है और करीब ९ बजे हम सुन्दर दृश्यों का आनंद लेते हुए पनवेल पहुच गये | यहाँ से थोड़ी ही दूर पर राज्य परिवहन का बस स्टेशन है और पैदल जाया जा सकता है |
पनवेल से कोई भी बस जो गोवा महामार्ग पर जा रही हो (अलीबाग या पेण की तरफ ) पकड़ कर कर्नाला अभयारण्य के मुख्य द्वार पर उतरा जा सकता है | यह पनवेल से करीब १२ किलोमीटर दूर है | अभयारण्य में प्रवेश के लिए २० रूपये का टिकेट है और करीब १० बजे हमने टिकेट ले कर ट्रेक शुरू कर दिया |

कर्नाला किले की ओर :
बाकी सब तो ठीक था परन्तु हमारी एक विशेष कला अक्सर हमारे ट्रेक में कुछ ना कुछ नए अनुभव दे जाती है | इस बार भी कुछ ऐसा हुआ कि हम खाने को कुछ भी ले कर नही चले | यहाँ तक की जल्दीबाजी में पानी की बोतल तक रखना भूल गये | हमारे अनुसार यह तो छोटा सा आसान ट्रेक था और इस विचार में हम बस उठे और चल दिए |
प्रवेश द्वार से थोड़ी दूर तक सड़क बनी हुई है और उसके आगे का पहाडी रास्ता किले तक ले जाता है | हमारा अनुमान था कि मुंबई के इतने करीब होने की वजह से हमें वहां भीड़ मिलेगी परन्तु इतनी सुबह तो कुछ बच्चों और थोड़े ट्रेकेर्स के अलावा कोई भी नही दिखा |
करीब आधा किलोमीटर चलने पर कुछ पिंजरों में पक्षी रखे हुए हैं | हम थोड़े आश्चर्य चकित थे कि हम तो अभयारण्य में आये हुए हैं और यह तो चिड़ियाघर लग रहा था | खैर एक पिंजरे में सुन्दर मोर पंखा फैलाये हुए चहलकदमी कर रहा था और हमने इस सुन्दर दृश्य का आनंद उठाया और चल पड़े |
यहाँ से एक बोर्ड जंगल से जाने वाले रास्ते का मिला और हम इस तरफ चल पड़े | थोडा दूर जा कर एक पानी का बहता धारा था तो जा कर हाथ मुह धो लिया और चढ़ाई शुरू कर दी | थोड़ी ही दूर चढ़े थे की पानी की प्यास सताने लगी | बरसात का नामो निशान नही था और सुन्दर धूप खिली हुई थी | यह चटक धूप दृश्यों को तो बेहद सुन्दर बना रही थी परन्तु चलते चलते प्यास तो लगनी ही थी | थोड़ी दूर पर बहता पानी दिखा परन्तु वो इतना साफ़ नही थी | रुमाल निकाल कर छानने की कोशिश की और एक दो घूंट पानी पी कर आगे बढ़ चले |
 रास्ता जंगल का ही था तो आराम से चलते जा रहे थे | जंगल में थोड़ी बहुत फोटो ग्राफी की और जंगल ख़त्म होते ही सामने किला दिखने लगा | वो शिखर जो नीचे से छोटा सा दिखाई दे रहा था , अब अपने पूरे आकार में दिख रहा था | इस शिखर की तलहटी पर मुख्य किला था और शिखर पर चढ़ना आसान नही है | पर्वतारोहण के प्रारंभिक अभ्यास के लिए अक्सर लोग यहाँ पर आते हैं |
अब हमें पहाड़ के उपर उपर ही किले के मुख्य द्वार कि तरफ चलना था और यहाँ से चारों तरफ के सुन्दर दृश्य दिखाई दे रहे थे | पानी कि कमी से गला भी सूख चुका था | थोड़ी ही देर में हम किले के बिलकुल नीचे पहुच चुके थे और अब यहाँ से सीढियां बनी हुई थी जो किले के मुख्य द्वार पर ले जा रही थी |

मुख्य द्वार पर थोड़ी फोटोग्राफी की और आगे बढ़ गये |यहाँ अब हम चिमनी के आकार के विशाल शिखर के ठीक नीचे खड़े थे और इसकी तलहटी में बहुत सारी गुफाएं दिख रही थी | दरअसल ये गुफाएं बरसात के पानी के भण्डारण के लिए थी और इस चट्टान के चारों तरफ बनी हुई थी | इन गुफाओं और इनमे भरे पानी को देख कर इन दुर्गम किलों को बनाने की सूझबूझ का अंदाजा लग जाता है | इतनी विशाल मात्र में पानी था की यह पूरे साल किले की जरूरत के लिए कम ना पड़ता |

हम लोग अक्सर ट्रेक के दौरान इस पानी का पीने के लिए प्रयोग करते हैं परन्तु मुंबई के नजदीक होने की वजह से पर्यटकों ने इसे बहुत गन्दा कर दिया था | खाने के सामान और अन्य चीज़ें इसमें पड़ी हुई थी | अब तो प्यासे ही रहना था |
खैर उपर पहुचने का आनंद अब प्यास पर हावी हो रहा था और हम आगे बढ़ रहे थे | दूसरी तरफ पहुच कर थोडा नीचे उतरना था और जो शायद किले का बुर्ज रहा होगा | इस किनारे पर आ कर तो मानो सारी थकान एक हवा के झोंके के साथ गायब हो गई | यहाँ से बैठ कर दूर कोलाबा , वाशी , एलिफेंटा गुफाओं , मुंबई हार्बर का विहंगम दृश्य दिख रहा था | भाभा परमाणु अनुसन्धान संसथान के रिएक्टर छोटे छोटे दिखाई दे रहे थे | चारों तरफ पानी के तालाब और झीलें और कुछ नदियाँ | और सबसे ज्यादा सुन्दर थी वो हवा | अरब सागर से उठते तेज़ हवा के झोंके ऐसे लग रहे थे मानो उड़ा ही ले जायेंगे | मंजिल पर पहुच कर इतना सब मिले तो फिर वापस जाने का मन किसे हो |

यहीं पर हमारा परिचय मुंबई से आये हुए ३ ट्रेकेर्स के साथ भी हुआ | ये लोग भी इस जगह पर आकर प्रकृति के सौंदर्य से मुग्ध से | हांलांकि यह इनका पहला ट्रेक था परन्तु अब ये सह्याद्रि की सुन्दरता से अछूते नही रह पाएंगे |
करीब १२ बजे हम लोग शिखर पर पहुचे थे और १-२ घंटे वहीँ पर बैठे रहे | इसके बाद बहुत से लोग आ चुके थे और अब वापस ही लौटना था | अब फिर से प्यास लग रही थी तो दौड़ते हुए हम नीचे की तरफ चल दिए | हमारा अनुमान था कि वापसी में जंगल में पक्षी देखने को मिलेंगे परन्तु निराशा ही मिली | हाँ , वापसी के समय मुख्य द्वार से करीब १ किलोमीटर कि परिधि में पक्षियों कि जगह प्रेमी युगल यहाँ वहां बिखरे पड़े थे | शायद मुंबई के नजदीक होने की वजह से इस जंगल को भी इन्होंने अपने प्रेमालाप का सुरक्षित स्थान बना लिया है | कुछ लोगों को देख कर हम भी उसी तरफ उतर गये और बाद में एहसास हुआ कि ये सही रास्ता नही बल्कि यहाँ तो प्रेमी लोग छुपे बैठे हैं |

यहाँ से वापस पनवेल के लिए टमटम मिल गया और पनवेल से ६:३० की वसई के लिए सवारी गाड़ी पकड़ कर हम वापस पहुच गये |

                                                                                                                                  ---निपुण पाण्डेय |

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर चित्रों से सजी ज्ञानवर्द्धक पोस्‍ट !!

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  2. अब हमें कर्नाला जाने की जरुरत ही नहीं, आपके वर्णन से ही कर्नाला हमारे आँखों के सामने खड़ा रहा!

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  3. ये ट्रेक पिने का पानी ना होना , पक्षी अभयारण्य मै पक्षी क ना होना ,और टॉप पे जो हवा चल रही थी उसके वजह से यादगार रहेगी

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पढ़ ही डाला है आपने, तो जरा अपने विचार तो बताते जाइये .....