यदि किन्ही कारणोंवश आप थार यात्रा का प्रथम और द्वितीय भाग नहीं पढ़ पाए हैं तो कृपया यहाँ
देखें :
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
आज हमारी यात्रा का तीसरा दिन था और सुबह सुबह ५
बजे ट्रेन जोधपुर रेलवे स्टेशन पहुँच गयी। अब सबसे पहला काम था
होटल ढूँढना जहाँ कुछ देर आराम किया जाये । रेलवे स्टेशन के पास में ही एक होटल
में कमरा ले लिया और कुछ देर आराम किया । करीब ९ बजे हम लोग होटल से निकल पड़े जोधपुर
घूमने के लिए । सबसे पहले रेलवे स्टेशन के पास ही एक दुकान पर कचौरी और गरमा गरम जलेबी का
नाश्ता किया और फिर जोधपुर की घूमने वाली जगहों के बारे में पता किया। लोगों ने हमें
सलाह दी कि आम तौर पर लोग पूरे दिन के लिए ऑटो बुक कर लेते हैं जो उन्हें जोधपुर की
सारी जगहें घुमा देता है। कुछ ऑटो वालों से बात करने के बाद आखिर में हमने ४५०
रुपये में पूरे दिन के लिए ऑटो कर लिया जो हमें जोधपुर की ५ मुख्य जगहें घुमाने वाला
था ।
सबसे पहले हम निकल पड़े उमेद भवन पैलेस की तरफ । उमेद भवन पैलेस को पहले छित्तर पैलेस कहा जाता था क्योंकि यह जोधपुर की सबसे ऊँची पहाड़ी छित्तर पहाड़ी पर बना हुआ है । सन १९२९ में जब जोधपुर रियासत की प्रजा भयंकर सूखे से जूझ रही थी तब तत्कालीन महाराजा उम्मेद सिंह ने प्रजा को रोजगार देने के लिए इस महल की नींव रखी थी । जहाँ जैसलमेर में पीले रंग के पत्थर की बनी हुई इमारतें हैं वहीँ जोधपुर में लाल पत्थर पाए जाने की वजह से अधिकतर भवन लाल पत्थर के बने हुए हैं । उमेद भवन की गिनती विश्व के सबसे बड़े निजी निवास स्थानों में की जाती है । यह विशालकाय भवन तीन भागों में बंटा हुआ है : एक भाग में जोधपुर के राजा के वंशज रहते हैं , दूसरा भाग
राजा के वंशजों ने होटल
ताज को लीज पर दिया हुआ है जिसे ताज भवन पेलेस के नाम से जाना जाता है और तीसरा छोटा
सा भाग संग्रहालय के रूप में आम पर्यटकों के लिए खुला हुआ है ।
हमारे ऑटो वाले गाइड ने हमें बताया कि यह होटल राजवंश की आमदनी का मुख्य साधन है और उमेद भवन के आस पास की बहुत सारी जमीन भी इस राजवंश की है । इस पहाड़ी के आस पास राजवंश द्वारा ही बड़ी आलीशान कोठियों का निर्माण कर बेचा जा रहा है। सचमुच प्रजातंत्र के बावजूद भी राजाओं के वंशजों के इस राजसी जीवन का मतलब समझ नहीं आता। यही बात हमने गुजरात में मांडवी यात्रा के दौरान भी महसूस की थी । लोग राजवंश को अब भी इतना सम्मान देते हैं जिसे देख कर लगता है कि शायद प्रजातंत्र तो आ गया पर ये राजवंश अभी कुछ पीढ़ियों तक और हमारे मन में राज करेंगे ।
खैर हमने संग्रहालय का टिकट लिया और भीतर गए । यहाँ जोधपुर के राजवंश का इतिहास दर्शाते हुए कई चित्र और पुराने राजाओं की उपयोग की गयी वस्तुएं और उनके वस्त्रादि रखे हुए थे । राजवंश द्वारा पर्यटकों से इस संग्रहालय के लिए टिकट वसूला जाना और संग्रहालय में रखा सामान हमें कुछ ख़ास पसंद नहीं आया और हम जल्दी जल्दी बाहर आ गए ।
इसके बाद हम जोधपुर के बाजारों से होते हुए मेहरानगढ़ किले की तरफ चल दिए । मेहरानगढ़ किले को जोधपुर की शान कहा जा सकता है । जोधपुर में एक विशाल पहाड़ी पर बना हुआ मेहरानगढ़ किला दूर से ही अपनी भव्यता की वजह से सबको आकर्षित कर लेता है । यह किला भारत के प्राचीनतम किलों में से एक है और भारत के समृद्धशाली अतीत का प्रतीक है| सन १४५९ में जोधपुर के तत्कालीन राजा, राव जोधा ने अपनी राजधानी को
मंदोर के
तकरीबन एक हज़ार साल पुराने किले से हटाकर अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित स्थान में ले
जाने की सोची और मंदोर से लगभग ९ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ किले की नींव
रखी गयी । इस पहाड़ी को भोर चिड़िया कहा जाता था क्योंकि यहाँ पर बहुत सारे पक्षी रहा
करते थे ।
चूँकि राठौर वंश के शासक सूर्य देवता के उपासक थे इसलिए इस किले का नाम मिहिर (संस्कृत
शब्द - अर्थ सूर्य ) + गढ़ रखा गया जो बाद में मेहरानगढ़ कहलाने लगा । इस किले का निर्माण कार्य कई
वर्षों तक चला और महाराजा जसवंत सिंह (१६३८-७८) के समय
में पूर्ण हुआ । किले की दीवारें जो कहीं कहीं पर ३६ मीटर तक ऊँची हैं इसे उस समय के
कुछ सर्वाधिक सुरक्षित किलों में से एक बनाती हैं। इस किले में प्रवेश के लिए ७ द्वार
हैं और एक गुप्त द्वार भी है । किले के मुख्य द्वार के भीतर प्रवेश करते ही दीवारों
पर तोप के गोलों के निशान देखे
जा सकते हैं । इस किले की रखरखाव का काम अब भी राजवंश
के हाथों में ही है । किले के उपर जाने के लिए अब लिफ्ट भी लग चुकी है और २० रुपये
का टिकट दे कर आप लिफ्ट से उपर जा सकते हैं ।
किले के अन्दर अलग अलग राजाओं द्वारा बनाये गए अलग अलग महल हैं जो उस समय की समृद्ध शिल्प कला के द्योतक हैं । शीशा महल , फूल महल , मोती महल , तख़्त विलास आदि इनमें से मुख्य हैं । मेहरानगढ़ किले में स्थित संग्रहालय में पुराने समय की अनेक वस्तुएं आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं । आप किले के इन महलों के शिल्प और संग्रहालय की वस्तुओं का आनंद वर्णन की अपेक्षा इन चित्रों को देख कर ज्यादा अच्छी तरह ले सकते हैं : ( चित्रों को बड़ा कर के देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें )
इन महलों से होते हुए हम किले के दूसरी तरफ पहुँच गए जहाँ से पूरे जोधपुर शहर
का भव्य दृश्य देखा जा सकता है । इस स्थान पर पहुँच कर किले की विशालता का अनुमान होने
लगता है । दीवारों के उपर अनेक तोपें रखी हुई हैं और पूरे शहर के साथ सामने उम्मीद
भवन पेलेस भी दिखाई देता है । नीले रंग में रंगे हुए जोधपुर शहर का यहाँ से नज़ारा
वाकई अद्भुद था ।
यहाँ से आगे जोधपुर के शासकों और प्रजा की कुलदेवी चामुंडा देवी का विशाल मंदिर है
। चामुंडा माता के प्रति जोधपुर के लोगों में विशेष आस्था है । सन २००८ में इस मंदिर
में हुई भगदड़ में करीब २४९ लोगों की मृत्यु हो गयी थी और करीब ४०० लोग घायल हुए थे
।
अब तक हम इस विशालकाय किले में घूमते घूमते सचमुच थक चुके थे परन्तु अभी भी लग रहा था कि शायद कुछ छूट गया । परन्तु हमें और जगहें भी देखनी थी इसलिए हम वापस किले से नीचे उतर आये जहाँ ऑटो वाले हमारे गाइड हमारा इंतज़ार कर रहे थे ।
मेहरानगढ़ किले से नीचे उतरते ही थोड़ी दूर पर जसवंत थाड़ा है जिसका निर्माण महाराजा सरदार सिंह ने महाराजा जसवंत सिंह- द्वितीय की स्मृति में सन १८९९ में करवाया था । सफ़ेद संगमरमर से बने हुए इस स्मारक में अब अन्य राजाओं की भी समाधियाँ हैं । मेहरानगढ़ किले के शिल्प सौंदर्य और भव्यता के सामने हमें जसवंत थाड़ा की सुन्दरता ज्यादा आकर्षित नहीं कर सकी और हम इसे बाहर से देख कर ही मंदोर गार्डन की तरफ चल पड़े । अब तक भूख भी लग चुकी थी और रास्ते में एक जगह भोजन करने के बाद लगभग ३:३० बजे हम मंदोर गार्डन पहुँच गए ।

जैसा कि मैंने शुरुआत में बताया था, सन १४५९ में राव जोधा के समय तक मंदोर ही
जोधपुर रियासत की राजधानी हुआ करती थी जिसे सत्रहवीं शताब्दी के बाद जोधपुर का राजकीय
बाग़ बना दिया गया । यहाँ पर बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ बाग़ है जिसमें पुराने किले
के कुछ अवशेष हैं । राजधानी विस्थापित होने के बाद यहाँ पर राजाओं के स्मारक
(छत्रियां) बनाये जाने लगे । यह स्मारक भी बेहतरीन शिल्पकला के नमूने हैं । भिन्न भिन्न
काल में बने हुए ये स्मारक तत्कालीन शिल्प के अनुरूप अलग अलग तरीके से बने हुए हैं
। कुछ में बड़े गुम्बद भी हैं और कुछ मंदिरों की तरह कुछ मंजिल ऊँचे बनाये गए हैं ।
मंडोर गार्डन में घूमने के बाद हमें ऐसा लगा कि इन स्मारकों को संरक्षित करने के लिए
कुछ और प्रयास करने होंगे अन्यथा मंदोर गार्डन भी बहुत सी धरोहरों की तरह सिर्फ प्रेमी
युगलों के विहार की जगह बन कर रह जायेगा । आप भी कुछ फोटो देखें :
मंदोर गार्डन घूमने के बाद अब हम लोग थक चुके थे और ऑटो वाले ने हमें वापस होटल छोड़ दिया । होटल में कुछ देर आराम करने के बाद सामान ले कर पैदल ही जोधपुर के बाज़ारों की तरफ निकल पड़े । कुछ देर यूँ ही घूमते रहे और एक जगह रुक कर भोजन किया। भोजनोपरान्त अब समय था रेलवे स्टेशन की तरफ जाने का जहाँ से रात में दिल्ली के लिए ट्रेन में आरक्षण था । कुछ देर में ३ दिन की राजस्थान यात्रा की खूबसूरत यादों को समेटे हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए ।
सबसे पहले हम निकल पड़े उमेद भवन पैलेस की तरफ । उमेद भवन पैलेस को पहले छित्तर पैलेस कहा जाता था क्योंकि यह जोधपुर की सबसे ऊँची पहाड़ी छित्तर पहाड़ी पर बना हुआ है । सन १९२९ में जब जोधपुर रियासत की प्रजा भयंकर सूखे से जूझ रही थी तब तत्कालीन महाराजा उम्मेद सिंह ने प्रजा को रोजगार देने के लिए इस महल की नींव रखी थी । जहाँ जैसलमेर में पीले रंग के पत्थर की बनी हुई इमारतें हैं वहीँ जोधपुर में लाल पत्थर पाए जाने की वजह से अधिकतर भवन लाल पत्थर के बने हुए हैं । उमेद भवन की गिनती विश्व के सबसे बड़े निजी निवास स्थानों में की जाती है । यह विशालकाय भवन तीन भागों में बंटा हुआ है : एक भाग में जोधपुर के राजा के वंशज रहते हैं , दूसरा भाग
हमारे ऑटो वाले गाइड ने हमें बताया कि यह होटल राजवंश की आमदनी का मुख्य साधन है और उमेद भवन के आस पास की बहुत सारी जमीन भी इस राजवंश की है । इस पहाड़ी के आस पास राजवंश द्वारा ही बड़ी आलीशान कोठियों का निर्माण कर बेचा जा रहा है। सचमुच प्रजातंत्र के बावजूद भी राजाओं के वंशजों के इस राजसी जीवन का मतलब समझ नहीं आता। यही बात हमने गुजरात में मांडवी यात्रा के दौरान भी महसूस की थी । लोग राजवंश को अब भी इतना सम्मान देते हैं जिसे देख कर लगता है कि शायद प्रजातंत्र तो आ गया पर ये राजवंश अभी कुछ पीढ़ियों तक और हमारे मन में राज करेंगे ।
खैर हमने संग्रहालय का टिकट लिया और भीतर गए । यहाँ जोधपुर के राजवंश का इतिहास दर्शाते हुए कई चित्र और पुराने राजाओं की उपयोग की गयी वस्तुएं और उनके वस्त्रादि रखे हुए थे । राजवंश द्वारा पर्यटकों से इस संग्रहालय के लिए टिकट वसूला जाना और संग्रहालय में रखा सामान हमें कुछ ख़ास पसंद नहीं आया और हम जल्दी जल्दी बाहर आ गए ।
इसके बाद हम जोधपुर के बाजारों से होते हुए मेहरानगढ़ किले की तरफ चल दिए । मेहरानगढ़ किले को जोधपुर की शान कहा जा सकता है । जोधपुर में एक विशाल पहाड़ी पर बना हुआ मेहरानगढ़ किला दूर से ही अपनी भव्यता की वजह से सबको आकर्षित कर लेता है । यह किला भारत के प्राचीनतम किलों में से एक है और भारत के समृद्धशाली अतीत का प्रतीक है| सन १४५९ में जोधपुर के तत्कालीन राजा, राव जोधा ने अपनी राजधानी को
किले के अन्दर अलग अलग राजाओं द्वारा बनाये गए अलग अलग महल हैं जो उस समय की समृद्ध शिल्प कला के द्योतक हैं । शीशा महल , फूल महल , मोती महल , तख़्त विलास आदि इनमें से मुख्य हैं । मेहरानगढ़ किले में स्थित संग्रहालय में पुराने समय की अनेक वस्तुएं आज भी सुरक्षित रखी हुई हैं । आप किले के इन महलों के शिल्प और संग्रहालय की वस्तुओं का आनंद वर्णन की अपेक्षा इन चित्रों को देख कर ज्यादा अच्छी तरह ले सकते हैं : ( चित्रों को बड़ा कर के देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें )
अब तक हम इस विशालकाय किले में घूमते घूमते सचमुच थक चुके थे परन्तु अभी भी लग रहा था कि शायद कुछ छूट गया । परन्तु हमें और जगहें भी देखनी थी इसलिए हम वापस किले से नीचे उतर आये जहाँ ऑटो वाले हमारे गाइड हमारा इंतज़ार कर रहे थे ।
मेहरानगढ़ किले से नीचे उतरते ही थोड़ी दूर पर जसवंत थाड़ा है जिसका निर्माण महाराजा सरदार सिंह ने महाराजा जसवंत सिंह- द्वितीय की स्मृति में सन १८९९ में करवाया था । सफ़ेद संगमरमर से बने हुए इस स्मारक में अब अन्य राजाओं की भी समाधियाँ हैं । मेहरानगढ़ किले के शिल्प सौंदर्य और भव्यता के सामने हमें जसवंत थाड़ा की सुन्दरता ज्यादा आकर्षित नहीं कर सकी और हम इसे बाहर से देख कर ही मंदोर गार्डन की तरफ चल पड़े । अब तक भूख भी लग चुकी थी और रास्ते में एक जगह भोजन करने के बाद लगभग ३:३० बजे हम मंदोर गार्डन पहुँच गए ।
सुख दुःख साझा करते युगल |
मंदोर गार्डन घूमने के बाद अब हम लोग थक चुके थे और ऑटो वाले ने हमें वापस होटल छोड़ दिया । होटल में कुछ देर आराम करने के बाद सामान ले कर पैदल ही जोधपुर के बाज़ारों की तरफ निकल पड़े । कुछ देर यूँ ही घूमते रहे और एक जगह रुक कर भोजन किया। भोजनोपरान्त अब समय था रेलवे स्टेशन की तरफ जाने का जहाँ से रात में दिल्ली के लिए ट्रेन में आरक्षण था । कुछ देर में ३ दिन की राजस्थान यात्रा की खूबसूरत यादों को समेटे हम दिल्ली के लिए रवाना हो गए ।
नेहा को अब तक मैंने सिर्फ बताया ही था कि हम किस तरह के घुमक्कड़ थे । मेरे विचार में यदि आप घूमने निकले हैं तो फिर थकान और आराम की बातों को कुछ दिनों के लिए टाल ही देना चाहिए । इन तीन दिनों में नेहा थक तो चुकी थी परन्तु इतनी नयी जगहों को देखने का आनंद उसकी थकान से कहीं ज्यादा था ।
बहुत जल्द अपनी अगली यात्रा की कहानी के साथ मिलता हूँ तब तक के लिए घूमते रहिये ....