मालवण की खूबसूरत
यादों में डूबे
हुए बहुत दिन
हो चले थे
। अब फिर
किसी नयी जगह
जाने की इच्छा
दिल को कचोटने
लगी थी । हालाँकि
अप्रैल का महीना
चल रहा था
और मुंबई और
आस पास का
मौसम लगभग गर्म
हो गया था
परन्तु जब नेहा
का भी साथ
मिला तो हमने
बहुत दिन से
लंबित मुरुड़ जंजीरा
जाने का विचार
बना लिया ।
मैं दोस्तों के साथ
अपनी पिछली कोंकण
यात्रा में अलीबाग
होते हुए काशिद
बीच तक का
इलाका घूम चुका
था इसलिए इस
बार सीधे मुरुड़
जाने की
योजना बनायी ।
आखिरी समय पर
नेहा का छोटा
भाई प्रकाश भी
हमारे साथ चलने
को तैयार हो
गया ।
मुरुड जंजीरा , महाराष्ट्र के
कोंकण में मुंबई
से करीब १६५
किलो मीटर दूर
स्थित मुरुड कसबे
के पास एक
समुद्री किला है
। इसका नाम
जंजीरा शायद अरबी
भाषा के शब्द
"जज़ीरा" का अपभ्रंश
होगा । एक
२२ एकड़ के
छोटे से द्वीप
पर इस किले
को मौजूदा रूप
में सिद्धि शाशकों
द्वारा पंद्रहवी शताब्दी में
बनवाया गया और
इसे भारत के
एकमात्र अजेय किले
के रूप में
जाना में जाना
जाता है ।
पुर्तग़ाल , अंग्रेज और मराठा
सेनाओं के कई
प्रयासों के बावज़ूद
यह किला सिद्धियों
के नियंत्रण में
ही रहा ।
२२ वर्षों में
इस किले का
निर्माण कार्य पूरा हुआ
और आज भी
इसकी मुख्य बाहरी
दीवारें यथावत हैं और
उस समय की
उत्कृष वास्तुकला की गाथा
कहती हैं ।
भारत के आजाद
होने के बाद
सन १९४८ में मुरुड
जंजीरा का भारतीय
संघ में विलय
हो गया ।
मुरुड़ कसबे के
बाहर जंजीरा के
नवाबों का महल
भी है ।
मुरुड़ के लिए
मुंबई की अनेक
जगहों से राज्य
परिवहन की नियमित
बस सेवाएं हैं
। हमारा विचार
एक दिन में
ही जा कर
वापस आने का
था इसलिए हम
सुबह ६ बजे
लोकल ट्रेन से
पनवेल के लिए
निकल गए ।
पनवेल में प्रकाश
भी हमें मिल
गया और यहाँ
से हमने मुरुड
के लिए बस
पकड़ ली ।
बस में भीड़
थी और हमें
अलीबाग तक का
सफर खड़े खड़े
ही तय करना
पड़ा । पनवेल
से मुरुड़ पहुचने
में हमें ४
घंटे लगे और
तकरीबन १२ बजे
हम मुरुड़ पहुंच
गए ।
मुरुड पहुँचते ही हमने
बस कंडक्टर से
वापसी की बस
के बारे में
पता किया ।
कंडक्टर की सलाह
पर हमने
शाम ५ :३० बजे
की बस में
आरक्षण करवा लिया
। इसके बाद
एक दुकान में चाय
नाश्ता किया और
दूकान के मालिक
से जानकारियां ले
कर हम जंजीरा
की तरफ चल
दिए । मुरुड
से करीब ४
किलो मीटर दूर
राजपुरी गाँव के
लिए ऑटो मिल
जाते हैं ।
राजपुरी गाँव से
जंजीरा किले के
लिये पाल वाली
नौका चलती हैं
। गर्मी का
मौसम होने के
बावजूद किले को
देखने के लिए
बहुत से पर्यटक
आये हुए थे
। हमने भी
टिकट लिया और
कुछ देर में
ही हम नाव
से जंजीरा के
लिए चल पड़े
।
मैं पहली बार
पाल वाली नौका
में सफर कर
रहा था और वाकई ये भी
एक अच्छा अनुभव
था । जेट्टी
से ही समुद्र
के बीच में
स्थित किले की
भव्यता का अनुमान
हो रहा था
। नाव में
ही एक गाइड
भी था जो
१०-१० रुपये
प्रति व्यक्ति ले
कर किले को
घुमाने और
उसके इतिहास से
रूबरू कराने के
लिए तैयार था
। इस किले
के मुख्य द्वार
को कुछ इस
तरह से बनाया
गया है कि
किले के बहुत
करीब तक पहुंच
जाने के बाद
भी आप इसकी
स्थिति का अनुमान
नहीं लगा सकते
।
थोड़ी ही देर
में हमारी नाव
किले के मुख्य
द्वार पर पहुँच
गयी । किले
की दीवार की
ऊंचाई देख कर
अनुमान हो रहा
था कि क्यों
कोई भी इस
किले को जीत
नहीं पाया ।
सबसे ज्यादा आश्चर्यचकित
हम इस बात
से थे कि
लगातार इतनी सदियों
से समुन्दर की
लहरों और खारे
पानी से निरंतर जूझती हुई यह दीवारें
ज्यों की त्यों
खड़ी थी ।
मुख्य द्वार पर ही
सिद्धियों के पराक्रम
का प्रतीक चिन्ह बना हुआ था
: एक
बाघ एक साथ छः हाथियों को
वश में किये
हुए था ।
विशाल मुख्य द्वार
से भीतर प्रवेश
करने पर थोड़ी
सीढ़ियां चढ़ कर
हम मुख्य दीवार
के ऊपर आ
गए । किले
के चारों तरफ
कुल १९ बुर्ज़
बने हुए हैं
जिनमे विशाल तोपें
रखी हुई हैं
। इन
विशालकाय तोपों में से
कुछ के नाम भी गाइड ने हमें बताये थे। तत्कालीन समय में भारत की तीसरी सबसे बड़ी तोप जिसका नाम है "कलक बांगड़ी " और वजन करीब १२ टन , मुख्य द्वार के ऊपर के बुर्ज पर रखी गयी है । यह तोप किले से सामने राजपुरी गाँव और आस पास के इलाके तक गोले फैंक सकती थी ।
कुछ के नाम भी गाइड ने हमें बताये थे। तत्कालीन समय में भारत की तीसरी सबसे बड़ी तोप जिसका नाम है "कलक बांगड़ी " और वजन करीब १२ टन , मुख्य द्वार के ऊपर के बुर्ज पर रखी गयी है । यह तोप किले से सामने राजपुरी गाँव और आस पास के इलाके तक गोले फैंक सकती थी ।
इस किले के
भीतर पूरा शहर
बसा हुआ था
हुआ था और
यहाँ तकरीबन ३०
फ़ीट गहरे मीठे
पानी के दो
कुण्ड भी हैं
। इसके साथ
ही मुख्य महल
, बाजार और किले
के कर्मचारियों के
लिए घर ।
साथ ही सभागृह
और मस्जिद आदि
। इसके अलावा
एक गुप्त द्वार
भी है जो
की जरूरत के
समय किले के
निकलने के लिए
बनाया गया होगा
गया होगा ।
इसके अलावा भी
किले के भीतर
अनेक भवनों के
अवशेष हैं ।
इसके साथ ही
एक गुप्त सुरंग
भी है जो
किले से चलकर
राजपुरी गाँव तक
जाती है ।
इस सुरंग को
अब बंद कर
दिया गया
है । गाइड ने
बताया कि इस
किले में सन
१९७२ तक लोग
रहते भी थे
जो बाद में
यहाँ से आस
पास की जगहों
पर पलायन कर
गए ।
किले के दूसरी
तरफ एक और
द्वीप में समुद्री
किले के खंडहर
दिखाई दिए ।
गाइड ने बताया
कि शिवाजी और
उनके पुत्र शम्भाजी
के जंजीरा को
जीतने के कई
असफल प्रयासों के
बाद शम्भा जी
ने जंजीरा के
पास एक और
चट्टानी द्वीप में पदम
दुर्ग नाम का
किला बनवाया ।
पदमदुर्ग तक पर्यटकों
को जाने की अनुमति नहीं है
और यह अब
खंडहर हो चुका
है ।
पदमदुर्ग |
इसके बाद अब
समय था वापसी
का । एक
नाव के लोगों
को करीब ४५
मिनट से १
घंटे किले
को घूमने के लिए दिया जाता
है । वापस राजपुरी
गाँव तक नाव
से पहुंचे और
यहाँ से ऑटो
से मुरुड की
तरफ चल दिए
।
अब तक भूख
भी जोरों की
लग चुकी थी
। लोगों से
खाने की अच्छी
जगहों के बारे
में पता किया
और पैदल ही
टहलते हुए हम
मुरुड़ बीच की
तरफ चल दिए
। मेरे लिए
किसी भी नयी
जगह में यूँ
ही पैदल टहलना
भी उस जगह
की संस्कृति और
आबो हवा को
करीब से देखने
का एक यादगार
अनुभव होता है
। इसी क्रम
में एक घर
के बाहर पारम्परिक
कोंकणी वेशभूषा में महिला के इस पुतले
ने हम सब
को बड़ा आकर्षित
किया ।
बीच के किनारे
की सड़क पर
कुछ देर टहलने
के बाद नारियल
के पेड़ों के
नीचे एक खुले
रेस्टोरेंट में भोजन
किया । यहाँ
भी स्वादिष्ट कोंकणी
थाली का आनंद
लिया जिसमे खास
था भाकरी (चावल
के आटे की
रोटी ) । अभी
धूप तेज़ थी
और हमारी बस
में भी समय
था । कुछ
देर यहीं बैठकर
बीच के सुन्दर
नज़ारों का आनंद
लिया और थोड़ी देर
बीच में समय
बिताने के बाद
अब समय था
मुख्य बाजार की
तरफ जाने का
। थोड़ी देर
बाजार में बिताने
के बाद बस
भी आ चुकी
थी और अद्भुद
मुरुड़ जंजीरा के
किले को यादों
की डायरी में
समेटे हम मुंबई
की तरफ वापस
चल पड़े ।