यदि किन्ही कारणोंवश आप थार यात्रा का प्रथम भाग नहीं पढ़ पाए हैं तो कृपया यहाँ देखें : थार मरुस्थल : लहराती रेत के अद्भुत पहाड़ ( भाग -एक )
थार मरुस्थल में सूर्योदय |
आज थार में हमारा दूसरा दिन था और सुबह करीब साढ़े छः बजे ही
हम खूरी गाँव के आस पास टहलने निकल पड़े । पप्पू
भाई ने बताया था कि डेजर्ट पार्क की तरफ से सुबह सुबह ही गाँव में बहुत सारे मोर आ
जाते हैं । दरअसल गाँव के लोग सुबह सुबह नियम से इन मोरों को दाना डालते हैं । सचमुच
मोरों का पूरा झुण्ड पूरी मस्ती में इस तरह गाँव के चक्कर लगा रहा था मानो गाँव के
मुआइने
रेगिस्तान गेस्ट हाउस |
पर निकला हो। हम भी कुछ देर इनके पीछे पीछे गाँव में घूमते रहे ।
अब नाश्ता करने के बाद समय था खूरी से विदा लेने का। करीब १०
बजे पप्पू भाई के साथ हम लोग जैसलमेर की तरफ चल दिए । आज का हमारा विचार था जैसलमेर
के किले और अन्य एतिहासिक धरोहरों को घूमने का । नेहा को पता था कि इस यात्रा में मेरा
मन भारत पाकिस्तान सीमा पर आखिरी स्थान तनोत और भारत पाक के युद्धस्थल लोंगेवाला जाने
का था परन्तु समयाभाव की वजह से हमने इसे योजना में शामिल नहीं नहीं किया था । यह सोचकर
उसने मुझसे कहा कि अगर हम जैसलमेर के किले के स्थान पर तनोत जा सकते हैं तो अच्छा
रहेगा । हमने पप्पू भाई से कुछ जानकारियां ली और बातों ही बातों में हमारी योजना बदल
गयी । पप्पू भाई भी अब तक समझ चुके थे कि मैं किस तरह का घुमक्कड़ हूँ और उन्होंने हमें
सलाह दी कि चूँकि जैसलमेर के किले में लोग रहते हैं और उसके मुकाबले तनोत जाना हमारे
लिए ज्यादा अच्छा रहेगा । बस, जैसलमेर पहुँचने से पहले ही उन्होंने हमारे लिए एक गाडी
का प्रबंध कर दिया।
जैसलमेर पहुंचकर हमने चाय वगैरह पी और तब तक गाड़ी आ चुकी थी
। आगे की यात्रा में हमारे ड्राईवर अशोक जी थे जो काफी उम्रदराज होने के साथ साथ बड़े
सज्जन भी थे । जैसलमेर से आगे निकलते ही कुछ दूर रण का क्षेत्र आ जाता है । यहाँ पर
पथरीले इलाके में खेती वगैरह की ज्यादा सम्भावना नहीं है । पूरा इलाका पवनचक्कियों (विंड मिल्स ) से भरा पड़ा
है जिसे देख कर लगा कि सचमुच मरुस्थल की हवा भी कितने उपयोग की है । चूँकि हमारे पास
समय ज्यादा नहीं था इसलिए हम बिना रुके चलते रहे । बीच बीच में कुछ गाँव भी दिख जाते
थे। इन गावों के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन पशुपालन है । यहाँ पर चूना पत्थर
बहुतायत में है और जगह जगह इसकी खदानें देखी जा सकती हैं । अब यह पथरीला इलाका ख़त्म
हो रहा था और हम धीरे धीरे मरुस्थल में प्रवेश करने लगे थे । सीधी सुनसान सड़क रेत के
टीलों पर चढ़ती उतरती जाती थी और सामने अगले टीले से आगे कुछ नहीं दिखता था । ये रेत के टीले
झाड़ियों से भरे हुए थे और कुछ जगह
मवेशी भी दिख जाते थे । एक दो जगहों पर रुक कर कुछ फोटोग्राफी की । हर तरफ तो एक सा मंजर
था, वीरानी का । अब एहसास हो रहा था कि इन जगहों पर दिशाओं का अंदाज़ा लगा पाना कितना
मुश्किल है । टीले दर टीले हम बढे जा रहे थे कि अचानक एक टीले के पार कुछ आबादी दिखाई
दी । यहाँ पर रेत के बीच एक गाँव सा था और उसके आगे घंटियाली माता का मंदिर है । यहाँ
पर पाकिस्तानी सेना द्वारा खंडित मूर्तियाँ भी रखी हुई हैं । कहा जाता है कि यहाँ पर
पहुँच कर पाकिस्तानी सैनकों को दिखना बंद हो गया था और उन्होंने भ्रम में अपनी ही सेना
पर गोलियां चला दी और आपस में लड़ कर ही एक दूसरे को मार दिया ।मंदिर के दर्शन करने के बाद यहाँ पर कुछ समय बिताया और रेत
के टीलों पर कुछ फोटोग्राफी की ।पाकिस्तानी सेना द्वारा खंडित मूर्तियाँ |
यहाँ से तनोत लगभग १० किलोमीटर दूर है और थोड़ी ही
देर में हम वहां पहुँच गए ।
तनोत भारत के पश्चिमी छोर पर भारत पाकिस्तान सीमा से पहले एक
छोटा सा स्थान है । एक राजपूत रजा तनु राव ने तनोत को अपनी राजधानी बनाया था और सन ८४७
में यहाँ तनोत माता के मंदिर की स्थापना की थी । इस स्थान के आगे असैन्य नागरिकों का
जाना प्रतिबंधित है और कुछ विशेष अनुमति के बाद ही आप यहाँ से आगे भारत की आखिरी सीमा
चौकी तक जा सकते हैं । यहाँ पर तनोत माता का भव्य मंदिर है जिन्हें भारत का रक्षक माना
जाता है । भारत पाकिस्तान के १९६५ के युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने यहाँ पर करीब तीन
हज़ार बम बरसाए परन्तु यह माता का चमत्कार था कि इनमे से कोई बम नहीं फटा । इस मंदिर
के रखरखाव का पूरा प्रबंध सीमा सुरक्षा बल (बी एस एफ ) के हाथों में है । यह भारतीय
सुरक्षा बलों के साथ समस्त भारतीयों की श्रद्धा का केंद्र है ।
तनोत में कुछ घर थे और बाकी सीमा सुरक्षा बल का क्षेत्र था
। जैसलमेर से तनोत के लिए राज्य परिवहन की बस सेवा भी है जो प्रतिदिन सुबह तनोत से
चल कर शाम को वापस तनोत पहुँच जाती है। सचमुच यह तो भव्य मंदिर था । मंदिर के भीतर
प्रवेश करते ही एक अनूठे रोमांच और श्रद्धा से रोम रोम भर चुका था । एक बड़े से सभाग्रह
से होते हुए हम मुख्य मंदिर में पहुँच गए । माता के दर्शन कर प्रसाद लिया । अचानक नेहा
ने दिखाया कि माता की मूर्ति के सम्मुख गोलियां आदि रखी हुई थी । अशोक जी ने बताया
कि माता को भारत का रक्षक माना जाता है और सीमा सुरक्षा बल के जवान यह सब माता को अर्पण
करते हैं । मंदिर में एक तरफ कुछ बम और गोले रखे हुए हैं जो पाकिस्तानी सेना ने इस
जगह पर बरसाए थे परन्तु माता के चमत्कार से वो फटे ही नहीं । मंदिर के प्रांगण में
पीर बाबा की मज़ार भी है । मंदिर से बाहर निकलते ही तनोत विजय स्तम्भ है जो भारतीय सुरक्षा
बलों की वीरता और शहादत की याद दिलाता है ।
यहाँ पर कुछ समय बिताने के बाद अब हम वापस जैसलमेर जाने के
लिए गाड़ी में बैठ चुके थे । अचानक मेरे मन में विचार आया और मैंने अशोक जी से लोंगेवाला
के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि हम लोंगेवाला होते हुए जैसलमेर जा सकते हैं और
आसानी से शाम को ५ बजे तक जैसलमेर पहुँच जायेंगे । बस अब क्या था गाड़ी झटपट लोंगेवाला
की सड़क पर मुड़ गयी ।
तनोत से लोंगेवाला करीब ३८ किलोमीटर दूर है । तनोत से लोंगेवाला
के मार्ग पर सचमुच थार मरुस्थल के ह्रदय में होने का अनुभव हो रहा था । चारों तरफ रेत
के एक जैसे टीले और इन पर चढ़ती उतरती एकदम वीरान सड़क और जगह जगह टीलों के उपर बने बंकर
- सचमुच यह है थार । हर समय, हर जगह, आप पर
नज़र है किसी की । एक दो जगह कुछ गाँव से भी दिखे जहाँ पर एक पानी का टेंक, कुछ झोपड़ियाँ
और खूब सारे मवेशी । खरामां खरामां हम चले जा रहे थे और हर टीले को पार कर फिर नयी
जिज्ञासा जन्मती थी अगले टीले के उस पार की ।
तनोत से लोंगेवाला के मार्ग के कुछ दृश्य |
लोंगेवाला में ही १९७१ के भारत पकिस्तान युद्ध की निर्णायक लड़ाई हुई थी जिसमे भारत ने पकिस्तान को चारों खाने चित्त कर दिया था । लोंगेवाला को पाकिस्तानी टेंकों की कब्र भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर हुए युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना की सैकड़ों गाड़ियों के साथ ३४ टेंक ध्वस्त कर दिए थे और भारत के दो सैनिक शहीद हुए थे । इस विजय के लिए ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी को वीर चक्र से सम्मानित किया गया । हिंदी फिल्म "बॉर्डर" की पटकथा लोंगेवाला के भारत पाक युद्ध पर ही आधारित है और फिल्म में दिखाया गया मंदिर तनोत माता के चमत्कार की तरफ संकेत करता है । लोंगेवाला में कुछ विजय स्तम्भ बने हुए हैं जहाँ पर भारतीय सेना के पराक्रम की गाथाएं अंकित हैं । पाकिस्तानी सेना का छोड़ा हुआ एक टेंक और एक ट्रक भी यहाँ पर रखा हुआ है । यहाँ पर कुछ देर रुकने के बाद हम वापस जैसलमेर की तरफ चल दिए । लोंगेवाला से जैसलमेर की सड़क अपेक्षाकृत ज्यादा अच्छी स्थिति में थी और कुछ आगे चलने पर अब कुछ अलग सा इलाका दिखने लगा था ।
यहाँ पर बड़े बड़े फार्म बने हुए थे और खेती भी हो रही थी । अशोक
जी ने बताया की कुछ जगहों पर अच्छी मिटटी भी मिल जाती है जिसका पूरा उपयोग खेती के
लिए किया जाता है ।
अब तब भूख भी बड़े जोरों से लग चुकी थी और जैसलमेर से पहले बीच में एक जगह पर रुक कर भोजन का आनंद लिया । जैसलमेर से थोडा पहले ही सूर्यास्त होने लगा था और हम इस समय बड़ा बाग़ के पास पहुच गए थे । यहाँ पर जैसलमेर के राजाओं की छत्रियां बनी हुई हैं जो वास्तव में शिल्पकला का सुन्दर नमूना हैं । चूँकि हमारे पास समय की कमी थी इसलिए सड़क से ही इसे देख कर हम जैसलमेर की तरफ चल दिए ।
जैसलमेर में नेहा की एक सहेली योगिता भी थी और वो हमसे मिलने
जैसलमेर किले के पास पहुँच चुकी थी । यहाँ पहुँच कर अब जैसलमेर के किले को देखने का
समय तो बचा नहीं था इसलिए हम प्रसिद्द पटवा की हवेली देखने चल पड़े । पुराने जैसलमेर
शहर के बीच में संकरी गलियों से होते हुए हम पटवा की हवेली पहुचे । इन रास्तों को देख
कर "नन्हे जैसलमेर " फिल्मे में देखा हुआ जैसलमेर याद आ गया ।
पटवा की हवेली जैसलमेर में स्थित शिल्प कला का एक नायाब नमूना
है । अगर इसके इतिहास पर नज़र डालें तो हम अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में पहुँच जाते
हैं जब दो पटवा बन्धु जैसलमेर में व्यापार किया करते थे । जब उनका व्यापार जैसलमेर में
फल फूल नहीं पाया तो कुछ पंडितों की राय ले कर ये लोग जैसलमेर छोड़ कर चले गए और जैसलमेर
छोड़ने के बाद इन्होने व्यापार में बहुत उन्नति की । इसके कुछ समय बाद जैसलमेर रियासत
के राजकोषीय घाटे की पूर्ति हेतु जैसलमेर के शासकों ने इन्हें वापस बुला लिया । जैसलमेर
आने पर परिवार के बुजुर्ग गुमान चन्द पटवा ने जैसलमेर किले के पास अपने पांच पुत्रों
को उपहार स्वरुप पांच आलीशान हवेलियाँ बनवा कर दी । दुर्भाग्यवश यहाँ आकर इनका व्यापार
अच्छा नहीं चला और ये लोग फिर से जैसलमेर छोड़ कर चले गए । परन्तु इनकी बनायी हुई ये
कोठियां जैसलमेर के लिए धरोहर बन गयी । हम जब तक यहाँ पहुंचे अँधेरा हो चुका था परन्तु
रात में भी इसके शिल्प की वाह वाही किये बिना न रह सके । सचमुच पीले रंग के पत्थर पर
इतनी बारीक नक्काशी की आज के समय में कल्पना भी नहीं की जा सकती । आप कुछ फोटो देख
कर इस शिल्प कला का अनुमान लगायें :